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________________ ५३४ ही बाहुल्य है । बड़े आश्चर्यकी बात यह है कि सुधर्मा की परम्पराका संघ विद्यमान होते हुए भी, और प्रस्तुत आगमोंकी वाचना सुधर्माकी परम्परासे प्राप्त होनेकी मान्यता होते हुए भी समस्त आगमों में सुधर्मा द्वारा भगवानसे पूछे हुए एकभी प्रश्नका निर्देश नहीं है । यद्यपि आगमों में इन्द्रभूति गौतमके पश्चात् दूसरे नम्बर पर किसी गणधर का वर्णन मिलता है तो वह आर्य सुधर्मा हैं। आर्य सुधर्माका गुण वर्णन भी इन्द्रभूति गौतम जैसा ही है । गुर्वावली की पद्धति में भिन्नता दिगम्बर' परम्परा में भगवान गौतम गणधर से लेकर वीर निर्वाण ६८३ वर्ष पर्यन्त हुए अंग ज्ञानियोंके क्रमसे गुरुनामावली दी गई है। क्योंकि महावीर निर्माण के पश्चात् ६८३ वर्ष पर्यन्त ही दिगम्बरोंमें अंगज्ञानियोंकी परम्परा चालू रही । उसके पश्चात् उस परम्पराका विच्छेद हो गया । यद्यपि परम्परासे होने वाले श्राचायोंमें अंगज्ञान उत्तरोत्तर घटता गया तथापि आंशिक ज्ञानकी परम्परा ६८३ वर्ष पर्यन्त अविच्छिन्न चलती रही । श्वताम्बरीय स्थविरावलियोंमें जो नामावली दी गई है। वह युग प्रधान आचार्योंके क्रमके अनुसार दी गई है । उसमें भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पश्चात् स्थूल भद्रको अन्तिम तर बतलाया है और लिखा है कि उन्हें ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वोका ज्ञान था । स्थूलभद्रके पश्चात् कोई चतुर्दशपूर्वी नहीं हुआ । अन्तिम दसपूर्वी वज्र स्वामी थे । वज्रस्वामी के शिष्य आर्य रक्षितको साढ़े नौ पूर्वोका ज्ञान था क्रमशः श्व ेताम्वर परम्परामें भी पूर्वोका लोप हो गया । किन्तु इस तरह १ ज० ६०, भाग १, पृ० ८३-८४ | जै० ० सा० इ० पूर्व पीठिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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