SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतावतार ५३३ है जिसे गौतम गणधर की कृति कहा गया हो । किन्तु दिगम्बर परम्परामें ऐसे आगम वाक्य हैं जो गौतम गणधर की कृति कहे गये हैं । इस पर से यह संभावनाकी जा सकती है कि गौतम गणधर का वारमा दिगम्वर परम्पराको प्राप्त हुआ था । यद्यपि दिगम्बर परम्पराके अनुसार अंगज्ञानका प्रवाह गौतम गणधर से ही सुधर्मा और सुधर्मा जम्बूको प्राप्त हुआ था और इस तरह गौतम गणधर और सुधर्मामें न कोई वाचना भेद होना संभव है और न सामाचारी भेद हो होना संभव है। किन्तु दोनों सम्प्रदायोंमें एक एक गणधर को ही प्रमुखता दिये जानेसे और श्व ेताम्बर साहित्य के उक्त उल्ल खोंसे एक अन्वेषक के मनमें उक्त संभावना हो सकती है । और आगे हुए संघ भेदमें इसका भी कुछ प्रभाव रहा हो, ऐसी भी संभावनाकी जा सकती है । अस्तु, किन्तु इसके साथही यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि वर्तमान गमोंको देखनेसे पता चलता है कि उनमें से कुछ आगमोंका निर्माण इन्द्रभूति गौतमके प्रश्नोंका आभारी है । भगवतीसूत्रमें तो इन्द्रभूतिके द्वारा भगवानसे पूछे गये प्रश्नोंका १ षट् खण्डागमके कृति अनुयोग द्वारके प्रारम्भमें सूत्रकार भूतबलिने 'मो जिणाणं' श्रादि ४४ सूत्रोंसे मंगल किया है । ठीक यही मंगल योनि प्राभृत ग्रन्थ में गणधर वलय मंत्र के रूपमें पाया जाता है । इन मंगल सूत्रों की टीका में वीरसेन स्वामीने यह लिखा है कि ये मंगल सूत्र गौतम गणधरने महाकर्म प्रकृति प्राभृतके श्रादिमें कहे हैं । यथा - 'महाकम्मपय डिपाहुडस्स कदियादिच उबीसणियोगावयवस्स आदी गोदमसामिणा परूविदस्त भूदब लिभंडारएण वेयणखंडस्त श्रादीए मंगलङ्कं तदो प्रदूण ठविदस्स' - षट् खं० - ५० ९, पृ० १०३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy