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लेखक के दो शब्द भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है किन्तु उसके इतिहास लेखन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया । डा० विन्टरनीट्स ने जर्मनभाषा में जो भारतीय साहित्य का इतिहास लिखा था और जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध हैं उसमें उन्होंने जैनसाहित्य के सम्बन्ध में भी एक छोटा सा प्रकरण दिया है। किन्तु वह भी बहुत संक्षिप्त और अपूर्ण है। श्री मोहनचन्द दलीचन्द देसाई ने गुजराती भाषा में 'जैनसाहित्य नो इतिहास' लिखा था और वह जैनश्वताम्बर कान्फेंस बम्बई की ओर से प्रकाशित हुआ था। किन्तु उसमें केवल श्वेताम्बर साहित्य को ही अपनाया गया था। अतः दिगम्बरीय जैनसाहित्य का कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा गया । दिगम्बर जैन विद्वानों में अपने साहित्य के प्रति अभिरुचि होते हुए भी उसके इतिहास के प्रति कोई अभिरुचि नहीं है और इसका कारण यह है कि इस देश के विद्वानों में प्रारम्भ से ही इतिहास के प्रति अभिरुचि नहीं रही । अाज भी संस्कृत भाषा के उच्चकोटि के विद्वान भी इतिहास को अनुपयोगी ही समझते हैं। किन्तु देश के इतिहास की तरह साहित्य का इतिहास भी उपयोगी होता है । उससे ग्रन्थगत और विषय गत बातों के सम्बन्ध में अभिनव प्रकाश पड़ता है और अनेक ऐसे तथ्य प्रकाश में आते हैं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः किसी ग्रन्थ का विषयगत हार्द समझने के लिए उस ग्रन्थ और ग्रन्थफार की सामयिक परिस्थिति तथा उसके पूर्वज ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का उसपर प्रभाव भी जानना आवश्यक होता है। और ये सब साहित्य के इतिहास को जाने बिना सम्भव नहीं है।
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