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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
कर्म समझा । तथा अश्वमेध यज्ञमें यजमान की भार्याको अश्व साथ सम्भोग करते देखकर उस मूर्ख कलिने माना कि वेद किसी धूर्तकी कृति है ।'
यज्ञोंके सम्बन्धमें एक बात और बतला देना आवश्यक है । पुरोहितोंके मन्दिर नहीं थे और सम्भवतः न मूर्तियाँ ही थीं । प्रत्येक यज्ञानुष्ठानके लिये यज्ञ करानेवाले यजमानके स्थान में ही वेदी बना ली जाती थी । यज्ञसे जो पुण्य लाभ होता था वह केवल यज्ञ करानेवालेको ही होता था । अतः वह यज्ञका पूरा व्यय उठाता था - वध किये जानेवाले पशुओंके लिये, विभिन्न कामों पर नियुक्त व्यक्तियोंके लिये और पुरोहितोंकी दक्षिणा के लिये उसे पूरा खर्च करना होता था । दक्षिण में मूल्यवान वस्त्राभूषण, घोड़े, गायें और स्वर्ण दिया जाता था । किस समय दक्षिणा में कौन वस्तु देनी होती थी यह सब लिखा हुआ है । स्वर्णदानकी बहुतायत हैं । लिखा है- धर्मात्मा पुरोहितको स्वर्णको विशेष रूपसे स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि उसमें नके बीज निहित हैं।
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अतः यज्ञोंमें बहुत ब्यय होता था और धनी व्यक्ति तथा राजा लोग ही उन्हें करा सकते थे। इसीसे यज्ञोंका मुख्य सम्बन्ध ब्राह्मणों और क्षत्रियोंसे है । अतः ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके सम्बन्धमें भी तत्कालीन स्थितिको जान लेना आवश्यक है ।
ब्राह्मण और क्षत्रिय
जब वैदिक आर्य पंजाब में आये तब उनकी संस्कृति क्या थी, इस विषय में विभिन्न मत हैं । फिर भी साधारणतया ऐसा माना जाता है कि वे पशुपालक और कृषक थे। पंजाब में बस जानेपर उनकी इस वृत्ति में तेजीसे वृद्धि हुई । किन्तु उस समय आर्योंको
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