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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
केवल ब्राह्मणोंका विरोध करनेके लिये पार्श्वनाथने इस चतुर्याम धर्मकी स्थापना नहीं की थी। मनुष्य मनुष्यके बीच में वैमनस्य नष्ट होकर समाज में सुख शान्ति लाना इस धर्मका ध्येय था । किन्तु पार्श्वनाथने ऋषि-मुनियों के पाससे अहिंसा ली। उसका क्षेत्र मनुष्य जातिके लिये ही संकुचित करना उनके लिये शक्य न था । जानबूझकर प्राणीकी हत्या करना अनुचित है. ऐसा पार्श्वनाथने प्रतिपादन किया। और उस समयकी परिस्थिति में सामान्य जनताको यह अहिंसा प्यारी लगी; क्योंकि राजा तथा सम्पन्न ब्राह्मण जनतासे खेतीके जानवरोंको जबरदस्ती छीनकर यज्ञभागों में उसका बध कर देते थे ।' ( पा० चा०, पृ० १५-१६) ।
आगे भगवान पार्श्वनाथ के द्वारा संस्थापित चतुर्याम धर्मके आधार पर ही भगवान महावीरने पञ्च महाव्रतरूप निग्रन्थ मार्गी तथा बुद्धदेव अष्टांग मार्ग की स्थापना की ।
किन्हीं विद्वानोंका ऐसा मत है कि पार्श्वनाथने केवल आचार रूप धर्मकी ही स्थापनाकी थी. दार्शनिक क्षेत्र में उनकी कोई देन नहीं है । संभवतया उनके इस मतका आधार तत्सम्बन्धी प्रमाणों का अभाव ही है; क्योंकि पार्श्वनाथका आत्मा, निर्वाण आदिको लेकर क्या मत था इसके जाननेका कोई साधन हमारे पास नहीं है । किन्तु पार्श्वनाथ के समय की स्थिति तथा भगवान महावीरके द्वारा प्रवर्तित जैन दर्शनके तत्त्वोंका पर्यवेक्षण करनेसे उक्त मत समीचीन प्रतीत नहीं होता ।
पार्श्वनाथका समय बड़ी उथल-पुथलका समय था । वह ब्राह्मण युग अन्त और औपनिषद् अथवा वेदान्त युगके आरम्भ का समय था । जहाँ उस समय शतपथ ब्राह्मण जैसे
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