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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पृ३ ५४८ । अतः बुद्ध के पश्चात् इस प्रकारके स्थविर भिक्षुओंको एकत्र करके धर्म और विनयके रूपमें बुद्धके उपदेशोंका सङ्कलन करना उचित था।
किन्तु महावीर भगवानके तो एक दो नहीं, ग्यारह गणधर थे-जिनका मुख्य काम भगवानके उपदेशोंको स्मरण रखकर तत्काल अंगोंमें ग्रथित करना था। और अथित करनेके पश्चात् किसी योग्य शिष्यको सौंपकर उसकी परिपाटीको कायम रखना भी एक मुख्य कार्य था। इसी परिपाटीके अनुसार द्वादशांग श्रुत अविकल रूपमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुको प्राप्त हुआ। दिगम्बर मान्यताके अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहुका स्वर्गवास दक्षिणमें हुआ और उनका उत्तराधिकार उनके शिष्य गोवर्धनाचार्यको प्राप्त हुआ। यद्यपि सकल श्रुतज्ञानका विच्छेद तो श्रुतकेवली भद्रबाहुके साथही होगया, तथापि गौतम गणधरसे जो परम्परा चालू हुई थी कि अंगश्रुतको प्रवाहित करनेके लिये उसे उसके योग्य उत्तराधिकारीको सौंप दिया जाये, वह ६८३ वर्ष पर्यन्त तक चालू रही। ___ श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार श्रुतकेली भद्रबाहुके जीवित रहते हुए भी उनकी अनुपस्थितिमें ही ग्यारह अंगोंका सङ्कलन पाटलीपुत्र में किया गया । और चूँ कि चौदह पूर्वोका ज्ञान भद्रबाहु के सिवाय अन्य किसीको नहीं था इसीसे पूर्वोका ज्ञान प्राप्त करने केलिये उनके पास कुछ साधुओंको भेजा गया ।
इसपरसे यह शंका होती है कि यदि भद्रबाहु श्रुतकेवली जीवित थे और उन्हें द्वादशांग श्रुत अविकल रूपसे प्राप्त था तो साधुसंघको एकत्र करके उसकी स्मृति के आधारपर ग्यारह अङ्गोंको संकलित करनेकी जल्दी क्यों की गई और दुर्भिक्षके कारण
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