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श्रुतावतार
५३७ और सात वर्षतक उपोसथ नहीं हुआ था। तब अशोकने स्थविरोंको आमंत्रित करके यह मामला उनके सामने रखा और तब तीसरी संगीति हुई, जिसमें नौ मास लगे। इस संगीतिके पश्चात् अशोकका पुत्र महेन्द्र लंका गया और 'त्रिपिटककी पाली (पंक्ति)
और उसकी अट्ठकथा, जिन्हें पूर्वमें महामति भिक्षु कण्ठस्थ करके लंका लेगये थे, प्राणियोंकी ( स्मृति-) हानि देखकर भिक्षु.
ओंने एकत्र हो, धर्मकी चिरस्थिति के लिये, पुस्तकोंमें लिखाया' (बु० च०, पृ० ५८०)। और इस तरह तीन संगीतियों के पश्चात् लंकामें त्रिपिटकोंको पुस्तकारूढ़ किया गया।
बौद्ध संगीतिका परिचय करानेके पश्चात् अब हम जैन परम्पराकी ओर आते हैं
विज्ञोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि जैसे महावीरके ग्यारह गणधर थे, जो महावीरके उपदेशोंको संकलित करके अंगोंमें निबद्ध करते थे, वैसे बुद्धके कोई गणधर नहीं थे। बुद्ध समयसमयपर उपदेश देते थे, किन्तु उनके उपदेशों को तत्काल प्रथित करनेका भार किसीके सपुर्द नहीं था; हाँ सतत साथ रहनेवाले उनके शिष्य साथ रहते-रहते उनके उपदेशोंको जाने और याद रक्खें यह बात भिन्न है। __ प्रथम संगीतिके समय बुद्धके अन्यतम अनुयायी आनन्द स्थविर भी उपस्थित थे। जब संगीतिके लिये स्थविर भिक्षुओंका चुनाव होने लगा तो भितु ओंने महाकश्यपको कहा-'भन्ते ! यह आनन्द यद्यपि शैक्ष्य ( अन्-अर्हत् ) है तो भी छन्द (राग ) द्वेष, मोह, भय अगति ( बुरे मार्ग) पर जानेके अयोग्य हैं। इन्होंने भगवान बुद्धके पास बहुत धर्म ( सूत्र ) और विनय प्राप्त किया है इसलिये भन्ते ! स्थविर आयुष्मानको भी चुन लें ।'-बु० च०,
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