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________________ श्रुतावतार ५३६ बहुतसे साधुओंके स्वर्गत होजाने पर भी श्रुत केवली भद्रबाहुके रहते हुए श्रुतविच्छेदका भय कैसे संभव था ? यह भय तो उनके स्वर्गवास होनेपर ही सम्भव है । इसके सिवाय श्रुतकेवलीके जोते हुए भी उसकी उपेक्षा करके अन्य आंशिक श्रुतधरोंकी स्मृतिके आधार पर अङ्गोंका संकलन करना स्पष्ट ही श्रुतकेवलीकी अवहेलना है। और इस प्रकारसे संकलित किये गये अङ्गोंको प्रमाण ही कैसे माना जा सकता है ? दिगम्बर तथा विशेषतया श्वेताम्बर साहित्यसे यह प्रकट होता है जैसाकि आगे बताया जायगा-कि अङ्गोंको अपेक्षा पूर्वोका विशेष महत्त्व था । श्वेताम्बर साहित्यके अनुसार तो पूर्वोसे ही अङ्गोंका निकास हुआ है। और उस समय पूर्वधर केवल एक श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । पूर्वोको वाचनाको लेकर ही उनका पाटलीपुत्रके संघ से मनमुटाव हुआ था। कल्पसूत्र-स्थविरावलीके अनुसार यशोभद्रके दो शिष्य थे सम्भूत विजय और भद्रबाहु । तथा सम्भूतविजयके शिष्य स्थूलभद्र थे । पाटलीपुत्री वाचना से पूर्व सम्भूति विजयका स्वर्गवास हो चुका था और इसलिये भद्रबाहु ही युग प्रधान थे। स्थूल भद्र तो एक तरहसे शैक्ष्य थे। क्योंकि पाटलीपुत्री वाचनाके पश्चात् पूर्वोका अध्ययन करनेके लिए जो साधु समुदाय श्रमण संघने भद्रबाहुके पास भेजा था उसमें स्थूलभद्र भी थे, और उन्होंने ही उनसे दस पूर्वोका अविकल ज्ञान प्राप्त किया था। किन्तु स्थूलभद्रने ग्यारह अङ्गोंका ज्ञान किससे प्राप्त किया यह स्पष्ट नहीं होता । यदि उस समय स्थूलभद्र ग्यारह अङ्गोंके वेत्ता थे तौभी अंगोंका संकलन करनेके लिये पाटलीपुत्री वाचनाकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि स्थूलभद्रको उनका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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