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संघ भेद
४१६ के अनुसार अचेलका अर्थ वस्त्रका अभाव ही है; क्योंकि सूत्र २०६ में बतलाया है कि वस्त्रधारी साधु भी ग्रीष्म ऋतुमें या तो सान्तरोत्तर हो जाये, या ओमचेल हो जाये, या एक साटक हो जाये या अचेल हो जाये। ___ शीलांकने इन शब्दोंकी व्याख्या करते हुए लिखा' है-'शीत ऋतु बीत जाने पर वस्त्रोंको छोड़ देना चाहिये। अथवा क्षेत्र विशेषके कारण यदि ठंढी हवा चलती हो तो शीतका परीक्षा और अपनी शक्तिको देखकर सान्तरोत्तर हो जाये-अर्थात् शीतकी आशङ्कासे वस्त्रका परित्याग न करके षासमें रक्खे । आवश्यकता होने पर ओढ़ ले। अथवा 'अवमचेल' हो जाये-एक वस्त्रको त्यागकर दो वस्त्र पास रखे, और धीरे धीरे शीतके चले जाने पर दूसरे वस्त्रको भी छोड़कर 'एकशाटक' हो जाये। अथवा शीतका अत्यन्त प्रभाव हो जाने पर उस एक वस्त्रको भी छोड़कर अचेल हो जाये । अचेलके मुखवस्त्र और रजोहरण मात्र उपधि होती है।
उक्त सूत्रके अनुसार निर्वस्त्र साधु अचेल, एक वस्त्रधारी एक शाटक, दो वस्त्रधारी अवमचेल और वस्त्रको पास रखकर
१ 'अपगते शीते वस्त्राणि त्याज्यानि, अथवा क्षेत्रादिगुणाद् हिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थ शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत्-सान्तरमुत्तरं प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित्पावृणोति क्वचि. पार्श्ववर्ति विभर्ति शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात् द्विकल्पधारीत्यर्थ; अथवा शनैः शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयकल्पमपि परित्यजेत् तत एकशाटकः संवृत्तः, अथवाऽऽत्यन्तिके शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति असो मुखवस्त्रिकारजोहरणमात्रोपधिः।'-श्राचा० सू० वृत्ति, पृ० २५२। ,
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