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________________ ૪ર૭ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका भी आवश्यकताके समय ही उसका उपयोग करनेवाला सान्तरोत्तर कहलाता है। __ अतः अचेलताके अर्थमें जो परिवर्तन किया गया वह आचारांगके प्रतिकूल है । तथा उत्तराध्ययनके भी प्रतिकूल है। उत्तराध्ययनमें अचेल परीषहका वर्णन करते हुए लिखा है- मेरे वस्त्र जीर्ण हो गये हैं अतः इनके नष्ट हो जाने पर मैं अचेल रहूँगा अथवा सचेल रहूँगा ( कोई मुझे वस्त्र दे दे तो ) भिक्षुको यह चिन्ता नहीं करनी चाहिये। एक समय साधु अचेल तो एक समय सचेल रहता है अचेलताको धर्मका उपकारक जानकर ज्ञानीको विकल नहीं होना चाहिये।' यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें साधुके लिये २२ परीषहोंको जीतना आवश्यक बतलाया है। परीषहका मतलब अचानक उपस्थित होने वाली बाधा या कष्ट है। उन बाईस परीषहोंमें शीतपरीषह, दंसमशक परीषह और अचेल या नागन्य परीषह भी है। वस्त्र रहते हुए भी बस्त्रके पर्याप्त न होनेपर शीत परीषह हो सकती है। उसी तरह पूरे शरीरको ढांकने लायक वस्त्र न होने पर डांस मच्छरका भी कष्ट हो सकता है। किन्तु नागन्य परीषह नग्न रहनेकी बाधा - १ 'परिजुन्नेहि वत्थेहिं होक्खामित्ति अचेलए । अहवा सचेलए होक्खं इति भिक्खू न चिंतए ॥१२॥ एगया अचेलए होइ, सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं नच्चा नाप्पी णो परिदेवए ॥१३॥' -उत्तरा०,२ अ०॥ टीकाकार नेमिचन्दने भी यहाँ अचेलका अर्थ चेलविकल किया हैअल्प चेल आदि नहीं । ले० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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