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________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका समय होता पशुवधके लिये शमिताको बुलाता। और एक मंत्र पढ़ता, जिसका भाव इसप्रकार है___ "इस काममें पशुकी माता अनुमति दे, पिता अनुमति दे, सहोदर भाई अनुमति दें, इसके मित्र तथा साथी अनुमति दें। इसके पैर उत्तर दिशामें रहें, चक्षु सूर्यकी ओर रहें, प्राण वायुका, जीवन आकाशका, कान दिशाओंका और शरीर पृथ्वीका श्राश्रय ले। इसका चमड़ा इस तरहसे अलग करो कि वह फटे नहीं । नाभिको काटनेसे पहले उसकी चर्बी निकाल लो। इसकी श्वांस बाहर न निकले। इसकी छाती इस तरहसे काटो कि वह एक पर फैलाये पक्षीकी तरह मालूम दे। आगेके पैर काटो। इसके कन्धे कछुवेको शक्लमें काटो। पिछला भाग ऐसा काटो, उसे कोई हानि न पहुँचे। जंघाओंको करवीरकी पत्तीकी शकलमें काटो। २६ पसुलियोंको अलग-अलग करलो । और सब सभ्योंको इस तरह बाँटों कि कुछ बाकी न रहे। विष्टे वगैरहके लिए एक नाली खोदो, खून राक्षसोंके लिए फेंक दो। ___ अन्तमें कहता—'हे वधक ! इस पशुका घात करो, घात करो, अपाप, अपाप, अपाप, इस कर्ममें जो सुकृत हो वह हमें अर्पण करो। जो दुष्कृत हो वह दूसरोंको अर्पण करो' ( तैत्ति० ब्राः)। पशुका बध हो चुकनेके बाद यजमान, उसकी पत्नी और अध्वर्यु पानीसे उसे धो डालते। अध्वयु उसका पेट चीरकर वया निकाल लेता। उसका सहायक प्रतिप्रस्थाता दो लकड़ियोंकी सहायतासे उस वयाको उठा कर अग्नि पर तपाता। फिर उत्तर वेदीके बीचकी आहवनीय अग्निके ऊपर उसे पकड़े रहता। अग्निके तापसे पिघलकर वया अग्निमें टपकती। अध्वर्यु उस पर घी डालता। विधिपूर्वक मंत्र पाठके बाद इस वयाका थोड़ा भाग अग्निमें डालनेके पश्चात् प्रयाजयाग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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