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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण शतपथ ब्राह्मणका उक्त कथन यज्ञके क्रमिक विकासपर प्रकाश डालता है।
यहां एक पशुयागका विवरण देना अनुचित न होगा। यह पशुयाग अन्य पशुयागोंका मूलरूप है। यह छै ऋत्विजोंकी सहायतासे होता था। इसमें एक पाशुक वेदी होती थी, जिसपर पशुयागके लिये आवश्यक सामान और आहुतिका द्रव्य रखा जाता था। ___ पशुको वाँधने के लिये एक यूप-लकड़ीका खूटा रहता था । इसपर घी चुपड़ा जाता, फिर एक डोरी बांधी जाती। उसमें एक लकड़ी पिरोई जाती। प्रत्येक काम अध्वर्युको करना पढता था और होता प्रत्येक क्रियाके अनुकूल मंत्र पड़ता था। इस तरह यूप पशु बन्धनके योग्य होता। पशुके दोनों सीगोंके बीचमें डोरी बांधकर इस डोरीको यूपमें बांधी गई डोरीके साथ बांध दिया जाता। इसके बाद यज्ञकी तैयारी होती।
मुख्य यागके पहले प्रयाज यागकी विधि प्रारम्भ होती । पशुयागमें ग्यारह प्रयाजयाग होते थे । इन ग्यारह प्रयाजयागोंमें से प्रथम दसमें घीकी आहुति दी जाती। किन्तु अन्तिममें पशुकी नाभिके पास जो मेद रहता है, जिसे वया कहते हैं, उसकी आहुति दी जाती। अतः ग्यारहवें प्रयाजयागसे पहले पशुवधकी तैयारी करनी पड़ती। ___ जो व्यक्ति पशुवध करता उसको शमिता कहते थे। पाशुक वेदीके उत्तरमें पशुवधका स्थान होता था। वहाँ पशुके शरीरको पकानेके लिये अग्नि प्रकट की जाती थी। एक ऋत्विज अग्निकी रशाल जलाकर पशुके चारों ओर घुमाता। इसका उद्देश्य था कि राक्षस पशुपर आक्रमण न करें, क्योंकि वे अग्निसे डरते हैं। इसी
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