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जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका वीरके ये सभी ग्यारह गणधर द्वादशांगी, चतुर्दशपूर्वी और समस्त गणिपटकके धारक थे। राजगृहीमें मासिक निर्जल भक्तके द्वारा कालगत होकर ये सभी सब दुःखोंसे मुक्त हो गये। स्थविर इन्द्रभूति और स्थविर सुधर्मा ये दोनों महावीरके निर्वाणके पश्चात् मुक्त हुए। आज पर्यन्त जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ विहार करते हैं ये सब आर्य सुधर्माकी सन्तान हैं शेष सब गणधर निःसन्तानी हुए।। __ इस स्पष्टीकरण के पश्चात् स्थविरावली भगवान महावीर के शिष्य सुवर्मासे प्रारम्भ होती है। यही बात नन्दीसूत्रके प्रारम्भमें दी गई स्थाविरावली में भी पाई जाती है वह भी सुधर्मासे ही शुरू होती है। इस तरह श्वेताम्बर परम्परामें आज जो अङ्ग साहित्य पाया जाता है वह सुधर्मा के द्वारा उस परम्पराको प्राप्त हुआ था, गौतम गणधरके द्वारा नहीं।
हमने इस बातको खोजना चाहा कि जैसे दिगम्बर परम्पराके अनुसार प्रधान गणधर गौतमने महावीरकी देशनाको अङ्गोंमें गूथा वैसे श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार महावीरकी वाणीको सुनकर उसे अङ्गोंमें किसने निबद्ध किया ? किन्तु खोजने पर भो हमें किसी खास गणधरका निर्देश इस सम्बन्धमें नहीं मिला । प्राप्त उल्लेखों से साधारणतया यही प्रतीत हुआ कि सभी
पच्छा दुरिण वि थेरा परिनिव्वुया । जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एए णं सने अज्ज सुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा. अससेसा निरवच्चा धुच्छिन्ना ॥४॥-पट्टा० स० पृ. २ ।
१ 'तव नियमनाणरुक्खं प्रारूटो केवली अमियनाणी । . तो मुयह नाणवुद्धिं भवियजणविवोहणट्टाए ।
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