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________________ श्रुतावतार ५३१ गणधर वाणीको सुनकर उसे श्रङ्गोंमें निबद्ध करते हैं। शायद इसीसे गणधरोंकी वाचनामें भी भेद' होनेका उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में पाया जाता है । सेन प्रश्न में यह प्रश्न किया है कि तीर्थङ्करके गणधरोंमें वाचना भेद होने पर भी सांभोगिकपना ( एक साथ भोजन व्यवहार ) होता है या नहीं, तथा उनमें सामाचारी ( साधुओं का आचार ) कृत भेद रहता है या नहीं ? इसका उत्तर दिया है कि तीर्थङ्करके गणधरोंमें परस्पर वाचना भेद होने से सामाचारीमें भी कितना ही भेद रहता है और सामाचारीमें भेद रहने से कुछ भोगिकत्व भी रहता है। इसका शय यह है कि नोर्थङ्करके गणधरोंकी वाचनाए भिन्नर होती हैं और वाचना भिन्न होनेसे उनके आचार में भी भेद रहता है और आचार में भेद रहने से परस्पर में एक साथ खान पान करने में भी रुकावट होना संभव है ।' तं बुद्धिम पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसं । तित्थयर भासियं गंथंति तो पवयणट्ठा ॥ १०६५ | " 'तां च ज्ञानकुसुमवृष्टिं बुद्धया नितो बुद्धिमयस्तेन विमलबुद्धिमयेन पटेन गणधरा गौतमादयो ग्रहीतुं गृहीत्वाऽऽदाय निरवशेषां सम्पूर्णा, ततः तीर्थकरभाषितानिं कुसुमकल्पानि भगवदुक्तानि विचित्रप्रधानकुसुममालावद् ग्रथ्नन्ति । - विशेषा० भा० । १ 'तीर्थंकरभृतां मिथो भिन्नवाचनत्वेऽपि सांयोगिकत्वं भवति नवा ? तथा सामाचार्यादिकृतो भेदो भवति न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - गणभृतां परस्परं वाचनाभेदेन सामाचार्या अपि कियान् भेदः संभाव्यते तद्भेदे च कथंचिदसां भोगिकत्वमपि संभाव्यते ।" - सेन०, उल्लास २, प्रश्न ८१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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