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श्रु तपरिचय
५५५ विद्याएँ 'भगवन् ! क्या आज्ञा है, ऐसा कहकर उपस्थित ह ती है। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओंके प्रलोभनमें जो श्रा जाता है वह भिन्न दसपूर्वी है। किन्तु जो कर्मक्षयका अभिलाषा होकर प्रलोभनमें नहीं आता वह अभिन्न दसपूर्वी कहलाता है। यहाँ अभिन्न दसपृवियोंको नमस्कार किया गया है क्योंकि भिन्न दस पूर्वियोंके महाव्रत खण्डित हो जाते हैं। ___ इस तरह दिगम्बर परम्परामें भी ग्यारह अंगोंसे पूर्वोका विशेष महत्व माना जाता था। __ श्वेताम्बर परम्परामें ग्यारह अंगोंसे दृष्टिवाद का वैशिष्टय पहले बतला आये हैं। अतः पूर्वोका महत्त्व तो स्पष्ट ही है। 'नन्दि सूत्रमें भी लिखा है कि चतुर्दश पूर्वी और अभिन्न दस पूर्वी का जो द्वादशांग ज्ञान है वह सम्यक् श्रुत है, अन्यों का द्वादशांग ज्ञान सम्यक भी होना संभव है और मिथ्या भी होना संभव है। बारह वर्षके भयानक दुर्भिक्षके पश्चात् जव पाटली पुत्रमें अंगों का संकलन किया गया तो ग्यारह अंगों का तो संकलन हो गया किन्तु पूर्वोका किञ्चित् अंश भी संकलित नहीं हो सका; क्योंकि उस समय श्रुतकेवली भद्रबाहुके सिवाय कोई अन्य पूर्वज्ञाता नहीं था। जब संघ की प्रार्थना पर भद्रबाहुने पूर्वोकी वाचना देना स्वीकार किया तब पांच सौ साधु उनके पास पूर्व पढ़नेके लिये भेजे गये । एक स्थूल भद्रके सिवाय शेष सब साधु घबराकर भाग खड़े हुए। अकेले एक स्थूलभद्र डटे रहे। यह पहले लिखा है।
१-'इच्चेबदुवालसंगं गणीपिडगं चोद्दस पूठिबस्स सम्म सुश्र अभिण्ण दसपुव्विस्स सम्मसुत्र, तेण परं भिएणेसु भयणा, से तं सम्मसुअ॥ ४१ ॥-नन्दि०, पृ० १६२ ।
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