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जै० सा० इ० पू०-पीठिका की उत्थानिकामें टीकाकार श्री वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि महाकर्म प्रकृति प्राभृतके प्रारम्भमें गौतम गणधरने ये मंगल सूत्र रचे थे। इन मंगल सूत्रोंमेंसे दो सूत्र इस प्रकार हैं- णमो दस पुब्बियाणं ॥१२॥' और "णमो चोदस पुब्बियाणं ॥१३॥” इनमें दसपूर्वियों और चतुर्दशपूर्वियोंको नमस्कार किया है। इन दोनों सूत्रोंकी धवलाटीकामें यह प्रश्न उठाया गया है कि सभी अङ्ग
और पूर्व जिनवचन होनेसे समान हैं। तब सबका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया, दस पूर्वियों और चतुर्दश पूर्वियोंको ही नमस्कार क्यों किया ? इसका उत्तर देते हुए लिखा है कि यद्यपि जिनवचन रूपसे सभी अङ्ग और पूर्व समान हैं. तथापि दशवें विद्यानुप्रवाद और चौदवें लोकबिन्दुसार पूर्वोका विशेष महत्व है, क्योंकि इनका धारी देवपूजित होता है तथा चौदह पूर्वोका धारक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता और न उस भवमें असंयमको ही प्राप्त होता है। ___णमो दस पुब्बियाणं' ॥ १२ ॥ सूत्रकी धवला टीकामें दस पूर्वी के दो भेद किये हैं-एक भिन्न दसपूर्वी और एक अभिन्न दस पूर्वी। आगे लिखा है कि 'ग्यारह अंगोंको पढ़कर पश्चात् परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका, इन पांव अधिकारोंमें निबद्ध दृष्टिवादको पढ़ते समय उत्पाद पूर्व आदिके क्रमसे पढ़ने वालोंके दशम पूर्व विद्यानुप्रवादके समाप्त होने पर सात सौ क्षुद्र विद्याओंसे अनुगत रोहिणी आदि पांच सौ महा
१-'जिणवयणत्तणेण सव्वांगपुव्वेहि सरिसते संतेवि विज्जाणुप्पवादलोगर्विदुसाराणं महल्लमत्थि एत्थेव देवपूजोवलंभादो । चोद्दस पुबहरो मिच्छत्तण गच्छदि, तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एम! एदस्स विसेसो'। -षट्खं पु० ९ पृ० ७१ ।
२-पट्खण्डा०, पु० ६ पृ० ६६ ।
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