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________________ जै० सा० इ० पूर्व-पीटिका हैं। अतः यदि आजीविकोंके नग्न रहनेसे दिगम्बरोंको आजीविकों का उत्तराधिकारी माना जाता है तो आजीविकोंके एक दण्डी होने से दण्डधारी श्वेताम्बरोंको भी आजीविकोंका उत्तराधिकारी बतलाना होगा। किन्तु यह सब भ्रान्त कल्पनाएँ हैं। और उनके आधार पर आजीविकों और दिगम्बरोंका ऐक्य प्रमाणित नहीं किया जा सकता। ___ खेद है कि आजके कोई कोई लेखक स्वयं अध्ययन न करके उक्त प्रकारकी भ्रान्त धारणाओंके आधार पर ही कागज काले करते हुए पाये जाते हैं। इसका एक उदाहरण श्री रामघोषका वह लेख है जो उन्होंने ओरियन्टल कांफ्रसके द्वितीय अधिवेशनमें पढ़ा था । उस लेखका शीर्षक है- 'अशोकका धर्म'। यह लेख डा० हार्नलेके उक्त लेखको सामने रखकर ही लिखा गया है। श्री घोपने भी लिखा है कि दिगम्बर साधु ५ फीट ऊँचा दण्ड रखते हैं, शीतल जल और वीज ग्रहण करते हैं। यदि दिगम्बर जैनोंके. साहित्यका अध्ययन करके श्री घोषने अपना लेख लिखा होता तो डा० हानलेकी भ्रान्तियोंका ही पिष्टपेषण करनेका कष्ट उन्हें न उठाना पड़ता। डा०हानले विदेशी थे और उन्होंने अपना लेख १६वीं शती के अन्तमें उस समय लिखा था जब दगम्बर जैन साहित्य प्रकाशमें नहीं आया था। किन्तु श्रीघोषने तो अपना लेख उससे चौथाई शताब्दी पश्चात् १६२२ में लिखा है, जब दिगम्बर जैन साहित्य काफी प्रकाशित हो चुका था। उपलब्ध दिगम्बर जैन साहित्यका प्रारम्भ ईसाकी प्रथम शताब्दीसे होता है। उसमें आजीविकोंकी छाया तकका संकेत नहीं मिलता और ऋषभ देवसे लेकर वर्धमान महावीर पयन्त चौबीस तीर्थङ्करोंका ही एकमात्र गुणगान आदि किया गया है। हां भोजनके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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