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संघ भेद
४६६ ४६ दोषोंमें से एक दोषका नाम 'आजीव' भी है। अपनी जाति कुल, शिल्पकर्म, तपस्या, प्रभुत्व आदिको बतलाकर भोजन प्राप्त करना 'आजीव" नामका दोष है। यह पहले लिखा ही है कि 'आजीव' से ही आजीविक शब्द निष्पन्न हुआ है। और आजीविक साधु श्राजीव या आजीविकाके विषयमें अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखते थे। सम्भव है कि वे अपनी जाति आदिका बखान करके भोजन प्राप्त करते हों। और उनकी उस वृत्तिके आधार पर
आजीव नामक दोषकी रचना हुई हो। किन्तु यह दोष यदि आजीविकोंकी वृत्तिसे संबन्ध रखता है तो उससे दिगम्बर जैनों और आजीविकोंका बैमत्य ही प्रकट होता है, ऐक्य या एकमत्य नहीं प्रकट होता। - यहाँ यह बतला देना भी उचित होगा कि श्वेताम्बर साहित्यमें भी 'आजीव' नामक भोजन दोष गिनाया है। असल में दिगम्बर और श्वेताम्बरोंमें मुख्य भेद वस्त्र परिधानका है, उनके अन्य आचारों और विचारोंमें यत्किंचित् अन्तर होते हुए भी प्रायः ऐक्य ही है। मूल सिद्धान्तोंमें, तत्त्व व्यवस्थामें कोई अन्तर नहीं हैं,
और इसका कारण यह है कि दोनों महावीरके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वपरम्पराको मानते हैं। यदि दिगम्बर सम्प्रदाय आजीविकोंसे निकला होता या आजीविक ही आगे चल कर दिगम्बर जैन सम्प्रदायके रूपमें परिवर्तित हो गये होते तो आजीविक सम्प्रदायके संस्थापक गोशालककी विचारधाराका कुछ अंश तो उसमें अवश्य ही परिलक्षित होता। ५-जादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त श्राजीव | तेहिं पुण उप्पादो श्राजीव दोसो हवदि एसो ॥३१॥
-मूलाचा, पिण्ड० ।
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