SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 697
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उनका विषय परिचय श्वेताम्बर साहित्य में भी नहीं है। अतः वीरसेन स्वामी के सामने तत्त्वार्थ वार्तिक के सिवाय अन्य भी कुछ साहित्य होना चाहिए और संभवतः अकलंक देव के सामने भी वही साहित्य रहा हो। दिगम्बर जैन सिद्धान्त ग्रन्थ षटखण्डागम तथा कसाय पाहुड़ पर अनेक टीकाएँ पूर्वमें रची गई हैं। उनमें से कई टीकाएँ वीरसेन स्वामी के सामने भी उपस्थित थीं। उन टीकाओं में से कोई टोका अकलंक देव के सामने अवश्य होनी चाहिये; क्यों कि अकलंक देव ने षटखण्डागम का उपयोग अपनी तत्त्वार्थ' वार्तिक में किया है यह उससे स्पष्ट है । इसके सिवाय अकलंक. देव ने अपने तत्वार्थर वार्तिक में 'व्याख्या प्रज्ञप्ति दण्डकेषु' का दो बार निर्देश करके उसका प्रमाण दिया है। 'व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डकेषु' के बहुवचनान्त प्रयोग से ऐसा अनुमान होता है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति में दण्डक नामक अधिकार होने चाहिये । दण्डक नामके अधिकार श्वेताम्बर अगामिक साहित्य में तो उपलब्ध नहीं होते किन्तु षट् खंडागम के जीवट्ठाणमें चूलिकाके अन्तगत महा दण्डक नामक अधिकार भी पाये जाते हैं। परन्तु व्याख्या. प्रज्ञप्ति पाँचवें अङ्ग का नाम है और वर्तमान भगवतीमें वह उद्धरण नहीं मिलते जो व्याख्या प्रज्ञप्ति दण्डकों से अकलंक देव ने दिये हैं। अतः व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डक नाम से कोई ग्रन्थ जो संभवतया पाँचवे अङ्ग का ही अंगभूत होगा अकलंक देव के सामने उपस्थित था । इत्यादि बातों से यही ज्ञात होता है कि अकलंक देव ने जो द्वादशांगका परिचय दिया है वह किसी १- पृ० १५३-२४४ । २-पृ० १५३, २४५ । ३--पु०६, पृ० १३३ आदि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy