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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पान था । और वैदिक ग्रन्थ इस विधिसे घनिष्टरूपसे सम्बद्ध हैं। यद्यपि सैद्धान्तिक और दार्शनिक विचारोंके तत्त्वका वैदिक प्रन्थोंमें सर्वथा अभाव नहीं है, किन्तु विद्वानोंके मतानुसार दार्शनिक विचारोंके विकासके लिये क्रियाकाण्डवाद उत्तम पड़ौस तो नहीं है। आदर्शवादी विचारोंके विकासके लिये एकाग्रता और चिन्तन आवश्यक हैं और इनके लिये यज्ञ उचित स्थान नहीं है। (हि० फि० ई० वे०, पृ० ३२)।
इसी तरह साकाररूपमें देवताकी उपासना परमात्मविषयक उच्च विचारोंकी ओर ले जाती है। ऐसी उपासना वहीं हो सकती है जहां कोई देवताका दृश्य प्रतीक होता है या साक्षात् मूर्ति होती है। यज्ञकी पद्धति कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो स्थायी स्थानका रूप ले सके, क्योंकि यज्ञ तो यथावसर तत्काल निर्मित मण्डपमें किये जाते थे और यज्ञ समाप्त होनेके साथ ही मण्डप समाप्त हो जाता था। किन्तु एक मन्दिर निर्माण करके और उसमें देवता को स्थापित करके पूजन करना एक स्थायी वस्तु है। यज्ञमें तो यज्ञके कर्ता पुरोहित लोग ही उस अदृश्य शक्तिका अनुभवन कर सकते थे-दूसरे लोग तो केवल अग्नि और उसमें दी जानेवाली आहुतियोंको देख सकते थे, उसमें क्रियात्मक भाग नहीं ले सकते थे। अतः मन्दिरपूजाके साथ साकारता, सामाजिकता और सततता सम्बद्ध है इसलिये सैद्धान्तिक विचारों के विकासके लिये मन्दिर ही उचित स्थान हो सकता है । यह मन्दिर प्रारम्भमें शहरी सभ्यतासे सम्बद्ध नहीं थे, किन्तु इनका सम्बन्ध जंगलोंसे था (हि. फि० ई० वे० पृ० ३३ )।
अतः विद्वानोंका मत है कि वैदिक सभ्यतामें उत्तरकालमें जो शहरोंके स्थानमें वनोंका और यज्ञोंके स्थानमें मन्दिर पूजाका प्रचलन हुआ, यह अ-वैदिक संस्कृतिका प्रभाव है, क्योंकि ये
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