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________________ ४.८ . जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका किन्तु मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके साधुओंके लिये अवश्य आचरणीय नहीं है । इसीसे प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करका धर्म अचेल बतलाया है और शेष बाईस तीर्थङ्करोंका धर्म सचेल अचेल दोनों बतलाये हैं। यहाँ ध्यान देनेकी बात यह है कि जैसे प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करका धर्म अचेल ही बतलाया है वैसे मध्यके शेष बाईस तीर्थङ्करोंका धर्म सचेल ही नहीं बतलाया। किन्तु अचेलके साथ साथ सचेल भी बतलाया है। अर्थात् जब कि प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करके साधुओंके लिये अचेल रहना अनिवार्य था तब मध्यके बाईस तीथङ्करोंके साधुओंके लिये अचेल रहना अनिवार्य नहीं था, परिस्थितिवश वे सचेल भी रह सकते थे। इस भेद का कारण था उस समयके साधुजनोंकी मनोवृत्ति, जिसका निर्देश पार्श्वनाथके चतुर्यामका वर्णन करते समय किया गया है। फिर भी स्पष्टीकरणके लिये पञ्चाशकसे नटका दृष्टान्त उद्धृत किया जाता है। प्रथम तीर्थङ्करका कोई साधु भिक्षाके लिये गया। मार्गमें नट का खेल देखकर देरसे लौटा । किन्तु चूंकि वह ऋजु-सरलहृदय था इसलिये उसने गुरुसे निवेदन कर दिया कि मैंने नटका खेल देखा है। आचार्यने उसे मना करते हुए कहा कि साधुको नटका खेल नहीं देखना चाहिये । उसने गुरुकी आज्ञा स्वीकार कर ली। दूसरे दिन वह पुनः भिक्षाके लिये गया और मार्ग में किसी बहु. रुपियाका स्वांग देखकर लौटा और गुरुसे पूर्ववत् निवेदन कर दिया। गुरु बोले-हमने तो कल तुमसे मना किया था। वह बोला-आपने तो नटका खेल देखनेके लिये मना किया था, मैंने तो बहुरुपियेका स्वांग देखा है। उसे देखनेके लिये तो आपने मना नहीं किया था। तब आचार्यने इस प्रकारके सर्व विनोदोंको देखना त्याज्य बतलाया और साधुने स्वीकार करके फिर नह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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