SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संघ भेद ४०७ हैं। ये कल्प स्थित और अस्थितके भेदसे दो प्रकारके हैं। श्वेताम्बर साहित्यके अनुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करके अनुयायी साधुओंके लिये दसों कल्प स्थित कल्प हैं क्योंकि उन साधुओंको दसों कल्पोंका सतत सेवन करना होता है। वे दस कल्प' इस प्रकार हैं -१ आचेलक्य-अचेलपना, २ उद्दिष्ट त्याग, ३ वसतिकर्ताके पिण्डादिका त्याग, ४ राजपिण्डका त्याग, ५ कृति कर्म, ६ महाव्रत, ७ पुरुषकी ज्येष्ठता, ८ प्रतिक्रमण, ६ एक मास तक एक स्थान पर रहना और १० वर्षाकालमें चार मास तक एक स्थान पर रहना। __ इन दस कल्पोंमें से आचेलक्य', उद्दिष्ट त्याग, प्रतिक्रमण, राजपिण्डका त्याग, मास और पर्युषणा ये छै कल्प मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके कालमें अस्थितकल्प हैं क्योंकि उनके अनुयायियोंके लिये इनका सतत सेवन करना आवश्यक नहीं है। उनके लिये केवल चार कल्प स्थित हैं-वसति कर्ताके पिण्डका त्याग, चतुर्याम, पुरुषकी ज्येष्ठता और कृति कर्म । उक्त कथनका सारांश यह है कि आचेलक्य धर्म प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करके साधुओंके लिये तो अवश्य आचरणीय है १-श्राचेलक्कुस्सिय सिजायर-रायपिंड-किइकम्मे । वय जेट्ठ-पडिक्कयणे मासं पजोसवण कप्पो ॥ -वृ० क०, ४ उ० । भ० प्रा० गा० ४२१ । २-श्राचेलक्कुसिय-पडिक्कमण रायपिंड-मासेसु । पज्जुसणकप्पम्मि य अट्ठियकप्पो मुणेययो ॥८॥ सिजायर पिंडम्मिय चाउजामे य पुरिसजेटे य । कितिकम्मरस य करणे ठियकप्पो मज्झिमाणं पि ॥१०॥ -पञ्चा०, विव० १७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy