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________________ ११२ जै० स० इ०-पूर्व पीठिका उस विधर्मी सम्प्रदायके पूज्य ब्यक्ति थे जिसका प्रधान देवता रुद्र था। शुरूमें ये लोग अद्भुत वेशवाली टोलियोंमें घूमनेवाले धर्मगुरू और जादूगर थे, जिनकी कई श्रेणियां थीं और अपना एक अलग ही पवित्र ज्ञान था, और बाद में एकाकी योगी, सिद्ध, जो अपने गुप्त ज्ञान और पवित्र अनुष्ठानोंका खजाना लिये देशमें घूमते फिरते।" डा. हावरने प्रात्योंको रुद्रका अनुयायी बतलाया है। वियना ओरियन्टल जर्नल (जि० २५, पृ० ३५५-३६८ ) में पॉल चार पेन्टर ( Paul Carpentier ) ने भी व्रात्योंको आधुनिक शैवोंका पूर्वज तथा अथववेदके उक्त व्रात्यको रुद्र शिव बतलाया था, किन्तु ए. बी. कीथने (ज० ए० ए, सो० १९२१) बड़ी ही योग्यतासे उनकी मान्यताका निराकरण कर दिया । मि० चारपेन्टर के मतका निराकरण करते हुए मि० कीथने लिखा है-अथर्वकाण्ड १५से भी इस बातका समर्थन नहीं होता कि ब्रात्य रुद्र शिव १. अथर्ववेद काण्ड १५के पहले सूक्त में व्रात्योंका वर्णन इस प्रकार प्रारम्भ होता है१.-व्रात्य घूम रहा था, उसने प्रजापतिको प्रेरित किया। २-उसने प्रजापति रूपमें सुवर्णको अपनेमें देखा । उसे जना। ३-वह एक हो गया, वह माथेका ललाम हो गया। वह महत् हुआ, वह ज्येष्ठ हुआ, ब्रह्म हुअा, सृजनेवाली गर्मी तप) हुआ और इस प्रकार प्रकट हुआ। ४-वह उद्दीप्त हो उठा, वह महान हो गया, महादेव बन गया। ५-वह देवताओंके ईश्वरत्वको लांघ गया, ईशान हो गया । (भा० अनु० पृ० १४) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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