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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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था। इसमें सन्देह नहीं कि अथर्ववेद काण्ड १५ का वर्णन व्रात्य से सम्बद्ध है । किन्तु उसमें मुझे यह कहीं नहीं मिला कि व्रात्य रुद्र शिव है। अथर्वका उक्त अंश ब्राह्मण शैली में है और वह बादका रचा हुआ प्रतीत होता है। उसमें प्रात्यकी प्रशंसा है, किन्तु अथर्व में इस प्रकारके धार्मिक सिद्धान्तों का पाया जाना साधारण बात है, और वे बतलाते हैं कि 'व्रात्य' के पीछे एक महान देवका रूप अन्तर्निहित है । अथर्व इतना ही बतलाता है कि ब्रात्य महादेव और ईशान हो गया, किन्तु १५-५-१ में भाव, शर्व, पशुपति, उग्रदेव, ईशान और रुद्रको उसका सेवक बतलाया है । यह सब उसकी लौकिक सामर्थ्यको बतलाते हैं किन्तु उसके मूल स्वरूपको प्रमाणित नहीं करते ।"
अथर्व ० का ० १५, के दूसरे सूक्तमें एक वाक्यांश इस प्रकार है - 'सुवर्णमात्मन्नपश्यत् तत् प्राजनयत्' इस वाक्य में सुवर्णके स्थानमें 'हिरण्यगर्भ' बदलकर शेष सम्पूर्ण वाक्य लगभग इसी रूप में व्रात्य अनुश्रुतिसे सम्बद्ध श्वेता० उप० ( ३-४-२ ) में इस प्रकार दुहराया है - 'यो देवानां प्रभवश्च उद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रों महर्षि हिरण्यगर्भे जनयामास पूर्वम् । '
यहाँ 'हिरण्य गर्भ' शब्द उल्लेखनीय है । इसके सम्बन्ध में हम आगे लिखेंगे । यहाँ यह शङ्का होती है कि क्या हिरण्यगर्भका ब्रात्यके साथ सम्बन्ध है । यदि है जैसा कि लगता है। तो फिर यह व्रात्य हिरण्यगर्भ कौन व्यक्ति था— जैन शास्त्रों में तो ऋषभदेवको हिरण्यगर्भ कहा है और उनके शरीरका वर्ण सुवर्णके समान बतलाया है । अथर्व ( १ - ४२ - ४ ) में भी ऋषभ देवके सम्बन्धमें एक मंत्र श्राया है ।
ब्राह्मण ग्रन्थोंमें ऐसे निर्देश नहीं मिलते जिनके आधारपर
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