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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण . अथर्ववेदका वह विद्वानोंमें उत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्वपूज्य ब्रात्य कौन है, यह आज भी अन्धकारमें है। जो व्रात्य प्रजापतिको शिक्षा दे सकता है वह अवश्य ही उक्त विषयोंका अधिकारी होनेके योग्य है। किन्तु जिस व्रात्यको वैदिक साहित्यमें संस्कारहीन, और पतित तक बतलाया गया है उसके सम्बन्धमें अथर्ववेदका उक्त कथन अवश्य ही अपनी कुछ विशेषता रखता है। इसीलिये भाष्यकार सायणको 'कंचित्' शब्द का प्रयोग करना पड़ा है क्योंकि सब बात्य तो इस योग्य हो नहीं सकते थे। उक्त विशेषणोंमें केवल एक विशेषण ही ऐसा जो नात्योंके सम्बन्धमें वैदिक दृष्टिकोणका सूचक है। वह है-- 'कर्मपरै ब्रह्मिणैर्विद्विष्ट'- कर्मकाण्डी ब्राह्मण जिससे विद्वेष करते हैं।' ___अथर्ववेदके १५वें काण्डके सम्बन्धमें जर्मनीके डा. हावरने लिखा है। -'ध्यानपूर्वक विवेचनके बाद मुझे स्पष्टतया विदित हो गया कि यह प्रबन्ध प्राचीन भारतके ब्राह्मणेतर आर्यधर्मको माननेवाले व्रात्योंके उस वृहत् वाङमयका कीमती अवशेष है जो प्रायः लुप्त हो चुका है।"
डा० हावरने व्रात्योंके सम्बन्ध में लिखा है-'अपनी पुस्तक 'देर व्रात्य' में मैंने बताया है कि 'व्रात्य' शब्द ब्रातसे व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है व्रत पुण्यकार्यमें दीक्षित मनुष्य या मनुष्योंका समुदाय । यह ब्राह्मणोंके दीक्षितका ठीक प्रतिबाचक है; ब्राह्मणोंके यहाँ ब्राह्मणको सर्वोत्तम दीक्षित कहा गया है। इसी कारण मत परिवर्तनके बाद जब व्रात्योंने ब्राह्मण धर्म स्वीकार किया तो वे लोग ब्राद्यण वर्गमें लिये गये। ब्रात्य लोग असलमें
। १. भा० अनु०, पृ० १३ ।
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