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________________ श्रुतपरिचय ६२५ दिन की हानि-वृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करती है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जम्बूद्वीप में स्थित भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्यों और तिर्यश्चों का तथा पर्वत, नदी, द्रह. वेदिका, मेरु, वन, आदि का वर्णन करती है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति बावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा द्वीपों और समुद्रों के प्रमाण का तथा उनके अन्तर्गत नाना प्रकार के अन्य पदार्थों का वर्णन करती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा रूपी और अरूपी द्रव्यों का, भव्य और अभव्य जीवों का तथा सिद्धोंका वर्णन करती है। २ सूत्र - दृष्टिवाद का दूसरा भेद सूत्र अट्ठासी लाख पदों के द्वारा जीव अबन्धक है. कर्म से अलिप्त ही है, अकर्ता ही है, निर्गुण ही है, अभोक्ता ही है, सर्वगत ही है, अणुमात्र ही है, निश्चेतन ही है, स्वप्रकाशक ही है, पर प्रकाशक ही है, नास्ति स्वरूप ही है इत्यादि रूप से नास्तिवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, १-षटर्ख० पु० १, पृ. १०६-११० । १-क० पा०, भा० १, पृ: १३२-१३३ । नन्दि० सू. ५७ की मलय० टीका में लिखा है-परिकर्म वा अर्थ है योग्यतापादन। जिसके अभ्याससे शेष सूत्रादि रूप दृष्टिवाद को ग्रहण करने में समर्थ होता है उस शास्त्र को परिकर्म कहते हैं। परिकर्म के उक्त भेद श्वेताम्बर परम्परा में नहीं हैं। २-नन्दि टीका में लिखा है-पूर्व गत सूत्रों के अर्थ का सूचन करने से सूत्र कहते हैं । वे सूत्र सब द्रव्यों सब पर्यायों, सब नयों और सब भंगों के प्रदर्शक होते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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