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________________ संघ भेद ४३७ बाणने 'यथावदभिगतात्मतत्त्वाश्च संस्तुता मस्करिणः' लिखकर मस्करी साधुओंको आत्मतत्त्वको ठीक प्रकारसे जानने वाले और सम्यक प्रकारसे स्तुत कहा है। इसका मतलब यह हुआ कि बाण के द्वारा उल्लिखित मस्करी साधु आत्मतत्वके यथावत् ज्ञाता और विशेष आदरणीय माने जाते थे। जहाँ तक हम जानते हैं मस्करी साधुओंके लिये इस प्रकारके सम्मानास्पद विशेषण अन्यत्र नहीं 'पाये जाते। उक्त स्थलके अध्ययनमें डा० अग्रवालने लिखा है-'यहाँ बाणने स्वयं हो सम्प्रदायका नाम दे दिया है । पाणिनिने मस्करी परिव्राजकोंका उल्लेख किया है। कुछ इन्हें मंखलि गोशालकका अनुयायी आजीविक मानते हैं। बाणके समयमें इनके दार्शनिक मतोंमें कुछ परिवर्तन हो गया होगा। अपने मूलरूपमें मस्करी भाग्य या नियतिवादी थे। जो भाग्यमें लिखा है वही होगा, कर्म करना बेकार है, यही उनका मत था। किन्तु बाणने उनके मतका ऐसा कोई संकेत नहीं किया ।'-ह० च०, पृ० ११२ । बाणने एक पांडरिभिक्षु' नामक सम्प्रदायका निर्देश किया है। डा० अग्रवाल पांडरिंभिक्षको आजोविक बतलाते हैं । वे लिखते हैं कि निशीथचूर्णि ( ग्रन्थ ४, पृ० ८६५ ) के अनुसार आजीविकोंकी संज्ञा पाण्डरिभिक्षु थी ! ये लोग गोरसका बिल्कुल व्यवहार न करते थे। इससे वाणका यह कथन मिल जाता है कि उनके शरीर जलसे सींचे गये थे। ह० च०, पृ० १०७ ।। किन्तु हर्षचरितके आठवें उछवासमें बाणने जो अनेक सम्प्र. दायोंके नाम दिये हैं उनमें भी मस्करीका निर्देश है तथा पांडुरिभिक्षुका भी निर्देश है । यदि बाणभट्टके द्वारा उल्लिखित पांडुरिभिक्षु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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