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________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ने परिग्रह त्याग व्रत में सम्मिलित स्त्री त्याग व्रत को पृथक् करके व्रतोंकी संख्या पाँच कर दी। स्था० सू० ( २६६ ) में कथित चतुर्याम का व्याख्यान करते हुए टीकाकार ने लिखा है-"मध्यके बाईस तीर्थङ्कर तथा विदेहस्थ तीर्थङ्कर चातुर्याम धर्म का तथा प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर पञ्चयाम धर्मका कथन शिष्योंकी अपेक्षासे करते हैं । वास्तवमें तो दोनों ही पञ्च पञ्च याम धर्मका ही प्रतिपादन करते हैं। किन्तु प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्करके तीर्थंके साधु क्रमसे ऋजु जड़ और वक्रजड़ होते हैं अतः परिग्रह छोड़ने का उपदेश देने पर 'परिग्रह त्याग में मैथुन त्याग भी गर्भित है यह समझनेमें और समझकर उसका त्याग करनेमें असमर्थ होते हैं। किन्तु शेष तीर्थङ्करोंके तीर्थके साधु ऋजु और प्राज्ञ होनेके कारण तुरन्त समझ लेते हैं कि परिग्रहमें मैथुन भी सम्मिलित है क्योंकि बिना ग्रहण किये स्त्रीको नहीं भोगा जा सकता। ___ अतः पार्श्वनाथ और महावीर के धर्म में जो अन्तर प्रतीत होता है वह सैद्धान्तिक नहीं है किन्तु अपने अपने समय के शिष्यों १-टीका-'इयं चेह भावना । मध्यम तीर्थङ्कराणां विदेहकानाञ्च चतुर्यामधर्मस्य पूर्वपश्चिमतीर्थकरयोश्च पञ्चयामधर्मस्य प्ररूपणा शिष्यापेक्षया । परमार्थतस्तु पञ्चयामस्यैवोभयेषामप्पसौ, यतः प्रथम पश्चिमतीर्थङ्करसाधवः अजुजडा वक्रजडाश्चेति तत्त्वादेव परिग्रहो वर्जनीय इत्युपदिष्टे मैथुनवर्जनमवबोधुपालयितुं च न क्षमा । मध्यम विदेहजतीर्थसाधवस्तु ऋजुषाशास्तद्वोधु वर्जयितुं च क्षमा इति ।' -स्था० सू० २६६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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