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जै० सा० इ० पू०-पीठिका प्रवाद नामक पाँचवे पूर्व की दसवीं वस्तु सम्बन्धी तीसरे कषाय प्राभृत रूपी महा समुद्र के पार को प्राप्त श्री गुणधर भट्टारक ने प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर सोलह हजार पद प्रमाण पेज्ज दोस पाहुड़ ग्रन्थ का विच्छेद होने के भय से केवल एक सौ अस्सी गाथाओं में उपसंहार किया। ____ इसी तरह षटखण्डागम का उद्गम अग्रायणी' नामक दूसरे पूर्व के पंचम वस्तु अधिकार के चतुर्थ कर्मप्रकृतिप्राभत से हुआ है । टीकाकार वीरसेन स्वामी ने बतलाया है कि अग्रायणी पूर्व में चौदह वस्तु अधिकार होते हैं-पूर्वान्त, अपरान्त, ध्रुव अध्रुव, चयनलब्धि, अोपम, प्रणधिकल्प, अर्थ भौम, वतादि (?) सर्वार्थ, कल्प निर्याण, अतीत काल में सिद्ध और बद्ध तथा अनागत काल में सिद्ध और बद्ध। इनमें से चयन लब्धि नामक पाँचवे वस्तु अधिकार में प्राभत नामक बीस अधिकार होते हैं। उनमें चौथे प्राभृत का नाम कर्मप्रकृतिप्रामृत है। इस कर्मप्रकृति प्राभृत के चौबीस अधिकार होते हैं। ____ उक्त सिद्धान्त सूत्रों से यह प्रकट है कि पूर्वो में वस्तु और प्राभत नाम के अधिकार होते थे। वीरसेन स्वामी ने प्रत्येक पूर्व में वस्तु नामक अधिकारों की संख्या बतला कर लिखा है कि एक एक वस्तु अधिकार में प्राभृत नामक बीस-बीस अर्थाधिकार होते हैं और इन प्राभताधिकारों में से भी एक एक अर्थाधिकार में चौबीस-चौबीस अनुयोग द्वार नामक अर्थाधिकार होते हैं।
१-'अग्गेणीयस्स पुव्वस्य वत्थुस्स चउत्थो पाहुडो कम्मपयडी णाम ॥४५॥' –घटखं., पु.६, पृ. १३४ । २-घट्वं., पु. १, पृ. १२३-१२४ । ३-क. पा., भा. १, पृ. १५१ ।
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