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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
के 'साधु जिनचन्द्र के सम्बन्धकी एक कथा और गढ़ दी और उसके द्वारा श्वेताम्बर मतको चला हुआ बतला दिया । वास्तव में
फालक नामका कोई भी सम्प्रदाय नहीं हुआ । भद्रबाहु चरित्र से पहले किसी भी ग्रन्थ में इसका उल्लेख नहीं मिलता। यह भट्टारक रत्ननन्दिकी खुदकी 'ईजाद' है ।'
उस समय तक हरिषेण कृत कथाकोश प्रकाश में नहीं आया था। संभवतः इसीसे प्रेमी जीने अर्धफालक संप्रदायको रत्ननन्दिकी खुदकी ईजाद लिख डाला। किंतु हरिषेण कृत कथाकोश से यह स्पष्ट है कि रत्ननन्दिने अपनी कथामें 'खुदकी ईजाद' नहीं घुसेड़ी, जो कुछ लिखा है वह उन्हें परम्परासे ही प्राप्त हुआ था । अतः रत्ननन्दि से कई शताब्दि पूर्व दसवीं शती में अर्धफालक सम्प्रदायका अस्तित्व माना जाता था, हरिषेणके 'कथाकोशसे यह स्पष्ट है ।
यदि उसे किसीकी 'ईजाद' कहा जा सकता है तो वह व्यक्ति आचार्य हरिषेण हैं । किंतु जैसे अर्धफालक सम्प्रदायको रत्ननन्दिकी 'ईजाद' करार देनेमें जल्दबाजी की गई, यदि वैसी ही जल्दबाजी उसे हरिषेणकी ईजाद करार देने में की गई तो यह दूसरी बड़ी भूल होगी; क्योंकि यद्यपि हरिषेणसे पहले के किसी ग्रन्थ में इस सम्प्रदायका कोई निर्देश अभी तक नहीं मिला है, किन्तु मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त जैन अवशेषोंमेंसे एक शिलापट्ट में
१ - कथाकोश में कहा है कि जब तक सुभिक्ष न हो साधु अपने बाएँ हाथसे वस्त्रको आगे करके तथा दाहिने हाथ में भिक्षापात्र लेकर श्राहारके लिये निकलें । यथा-
यावन्न शोभनः कालः जायते साधवः स्फुटम् । तावच्च वामहस्तेन पुरः कृत्वाऽर्धफालकम् ॥५८॥
२ - आजकल यह शिलापट्ट लखनऊ के संग्रहालय में सुरक्षित है ।
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