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जै० सा० इ० पू०-पीठिका इस अंगका प्रतिपाद्य विषय बतलाया है उसमें स्वसमय परसमय निरूपणका निर्देश नहीं है, किन्तु वीरसेन स्वामी ने उसका भी निर्देश किया है । अकलंक देवके अनुसार तो दृष्टिवादका प्रतिपाद्य विषय स्वसमय और परसमय है । दृष्टिवादके एक भेदका नाम भी 'सूत्र' है। वीरसेन स्वामीके अनुसार उसमें ३६३ मतोंका निराकरण किया गया है । नन्दिसूत्रके अनुसार भी 'सूत्र में तेरासिय आदि मतोंका खण्डन-मण्डन था । संभव है कि इस दुसरे अंगका निकास दृष्टिवादके सूत्र नामक भेदसे हुआ हो । इसीसे दोनोंमें नाम साम्यके साथ विषयमें भी आंशिक समानता है।
प्रो० विंटरनीट्स का कहना है कि दो श्रुतस्कन्धोंमेंसे प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है और दूसरा श्रुतस्कन्ध केवल एक परिशिष्ट है जो बादको जोड़ दिया गया है। यह सम्भव है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध एक ही व्यक्तिके द्वारा रचा गया हो। उससे भी अधिक सम्भव यह है कि किसी संग्राहकने एक पुस्तक का रूप देनेके लिये विभिन्न पद्यों और उपदेशों को एक प्रकरण रूपमें संयुक्त कर दिया हो। इसके विपरीत दूसरा श्रुतस्कन्ध, जो गद्यमें लिखा गया है, भहे ढंगसे एकत्र किये गये परिशिष्टों का केवल एक पिण्ड है। फिर भी भारतके धार्मिक सम्प्रदायोके जीवन का ज्ञान कराने की दृष्टि से दूसरा भाग भी महत्त्वपूर्ण है।' (हि० इ. लि.,. जि. २, पृ. ४४१)। ___ इस अंग पर भी एक नियुक्ति, चूर्णि तथा शीलांक की संस्कृत टीका है। इस अंग का जर्मन भाषामें अनुवाद डा० जेकावीने किया था। उसका अंग्रेजी अनुवाद ( से. बु. ई. जि. ४५ में) प्रकाशित हो चुका है।
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