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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के थे और दूसरे जिस संघभेदने जैन सम्प्रदाय को परस्पर विरोधी दो सम्प्रदायों में विभाजित कर दिया वह ईस्वी सन्के प्रारम्भ होनेसे बहुत पहले हो चुका था ।' (इं० से० जै०, पृ० ४४ )
इसका मतलब तो यही होता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहुके समय में ही संघभेद हुआ, जैसाकि दिगम्बर कथाओं में बतलाया गया है । क्योंकि ईस्वी सन्के प्रारम्भसे बहुत पहले तो वही समय ऐसा आता है । ऐसी स्थितिमें देवसेनने अपने दर्शनसार में जो वि० सं० १३६ में वलभी नगरीमें श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति होनेका निर्देश किया है उसका क्या आधार है, हम नहीं कह सकते, क्योंकि उस समय में वलभीमें कोई ऐसी घटना होने का संकेत तक भी नहीं मिलता । वलभी वाचनासे लगभग डेढसौ वर्ष पूर्व वि० सं० ३५७-३७० के मध्यमें तो मथुरामें वाचना होनेका निर्देश श्वेताम्बर साहित्य में पाया जाता है । मथुराके पश्चात् ही श्वेताम्बर सम्प्रदायका जोर सौराष्ट्रमें हुआ था । जैसाकि हमने पहले भी लिखा है 'वृहत्कथाकोश और दर्शनसार की रचनाके समय वलभीके सम्मेलनको हुए केवल चार पांच शताकियाँ ही बीती थीं, तथा उसीमें अन्तिम रूपसे निर्णीत होकर श्वेताम्बरीय जैन आगम पुस्तक रूप धारण करके सर्वत्र प्रसारित हुए थे । शायद इसीसे वलभीमें श्वेताम्बर संघके उत्पत्ति होनेका निर्देश दिगम्बर कथाओंमें किया है। किन्तु वि० सं० १३६ या १३ में जो संघभेदका उल्लेख मिलता है, उसके लिये और भी अन्वेषणकी आवश्यकता है ।
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संघभेदका प्रभाव और विकास
दिगम्बर और श्वेताम्बर के रूपमें प्रकट हुए संघभेदका प्रभाव यदि किसी पर विशेष रूपसे पड़ा अथवा संघभेदके कारण यदि
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