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________________ १४२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अपना बल और प्रभाव बढ़ाया। उन्होंने उस प्राचीन आख्यानमें अगणित कथाएँ सम्मिलित करदी जिनमें ब्राह्मणोंके पूर्वज ऋषियों के श्राश्चर्य जनक वृतान्त' वर्णित है। उनमें बतलाया है १-उदाहरण के लिये ऐक कथा यहां दी जाती है श्वेतकि नामके राजाको यज्ञ करनेकी बड़ी धुन सवार हुई । ऋत्विज धुएँ से ऊबकर यज्ञ छोड़ भाग गये । उनको अनुमतिसे दूसरे ऋत्विज लाकर यज्ञ समाप्त किया गया। अनन्तर श्वेतकिने सौ वर्षों में समाप्त होनेवाला यज्ञ करनेका विचार किया। वह ब्राह्मणों के पैर पड़ा, उन्हें दान दिया, पर श्वेतकिके यज्ञोंके लिये कोई ब्राह्मण तैयार न हुअा। उन्होंने क्रुद्ध होकर कहा-हम थक गये हैं तुम रुद्रको ही बुलाकर उससे अपना यज्ञ करवायो। तब उस राजाने कैलासपर जाकर उग्र तप किया। उससे शिवजीने प्रसन्न होकर वर मांगने के लिये कहा-श्वेतकिने वर मांगा-तुम ही मेरे यज्ञों के ऋत्विज बनो। पर महादेव तैयार नहीं हुए। उन्होंने श्वेतकिसे बारह वर्ष पर्यन्त निरन्तर घृतधारासे अग्निपूजा करने के लिये कहा । श्वेतकिके ऐसा करनेपर महादेव प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा-मेरा ही अवतार दुर्वासा ऋषि अब तुम्हारे यज्ञोंका ऋत्विज बनेगा। तदनुसार श्वेतकिने यज्ञकी तैयारी की। महादेवने दुर्वासाको भेजा । बहुत बड़ा यज्ञ हुअा। उससे अग्निको विकार हो गया। उसने ब्रह्मा के पास जाकर उसका इलाज पूछा । ब्रह्माने कहा-बारह वर्ष घृताहुति खानेके कारण तुम्हें यह रोग हुआ है और खाण्डव वनके सारे प्राणियोंकी चीं खानेसे तुम्हारा यह रोग अच्छा हो जायगा। अग्नि खाण्डव वन जलाना प्रारम्भ करताथा ओर इन्द्र उसे बुझा देता था । ऐसा सात बार हुआ। तब अग्नि ऋद्ध होकर ब्रह्माके पास गया । ब्रह्माने उसे कृष्णार्जुनके पास भेजा । अग्नि ब्राह्मण वेशमें कृष्णार्जुनसे मिला और अपनी तृप्ति के लिये उनसे कुछ मांगा। उन्होंने पूछा-कौन-सा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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