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________________ १८४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका वह किसी निष्कर्षपर पहुंचनेके लिये अपर्याप्त है, तथापि उससे जैन धर्मके प्राग ऐतिहासिक अस्तित्वके संबन्धमें कुछ झलक अवश्य प्राप्त होती है और उसपरसे कम से कम इतना तो निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि जैन धर्म किसी ब्राह्मण विरोधी भावनाका परिणाम नहीं है। किन्तु उसका उद्गम एक ऐसी विचार धाराका परिणाम है जो ब्राह्मण क्षेत्रसे बाहर स्वतंत्र रूपसे प्रवाहित होती आती थी। डा० जेकोबीने भी लिखा है-'इस सबसे यह संभाव्य होता है कि ब्राह्मणभिन्न तपस्वीवर्ग प्राचीन कालमें भी ब्राह्मण तपस्वियोंसे एक भिन्न और विशिष्ट वर्गके रूप में माना जाता था ।.........अतः अवश्य ही बौद्ध धर्म और जैन धर्मको ऐसे धर्म मानना चाहिये जो ब्राह्मण धर्मसे बाहर वृद्धिंगत हुए थे। तथा उनका निर्माण किसी तात्कालिक सुधारका परिणाम नहीं था। किन्तु सुदीर्घकालसे प्रचलित धार्मिक आन्दोलनके द्वारा उसका निर्माण हुआ था।' (से. बु० ई०, २२, प्रस्ता०, पृ० ३२ )। श्री रमेश चन्द्रदत्त उक्त विचार धाराका उद्गम ईसा पूर्व ग्यारहवीं शतीमें बतलाते हैं। उन्होंने लिखा है-'उत्सुक और विचारक हिन्दू ब्राह्मण साहित्यके थकाने वाले क्रिया काण्डसे आगे बढ़कर आत्मा और परमात्माके रहस्यकी खोज करते थे।' इस विषयमें पहले लिखा जा चुका है । आत्मा और परमात्माके रहस्यके अन्वेषकोंकी देन ही उपनिषदोंका तत्त्व ज्ञान है। इस ज्ञानके धनी क्षत्रिय थे। क्षत्रियोंसे ही ब्राह्मणोंने आत्मविद्याका ज्ञान प्राप्त किया था। भगवान ऋषभ देव भी क्षत्रिय थे और वे योगी तथा परमहंस थे। अतः यदि आत्मविद्याके वे ही परस्कर्ता रहे हों तो जैन धर्मका उद्गम भी उनसे ही होना संभव है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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