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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है। यद्यपि मुझे अपना उक्त अर्थ ही अधिक सुसंगत प्रतीत होता है। शीलांक आजीविकोंको परतीथिंक बतलाता है, दिगम्बरोंको नहीं, तथापि यदि दूसरा अर्थ हो ठोक मान जाये तो भी आजीवक और दिगम्बर एक नहीं ठहरते । 'च' शब्दके होनेसे आजीवकादि और दिगम्बरमें विशेषणविशेष्य भाव इष्ट नहीं है। इसीतरह दूसरे वाक्यमें जो 'वा' शब्द बीचमें पड़ा है वह 'च' का स्थानापन्न है। अतः उसका अर्थ होता है- 'वे गोशालक मतावलम्बी तथा दिगम्बर सम्प्रदायवाले'। इस वाक्यमें 'गोशालकमतानुसारी' पद पूर्व वाक्यके 'आजीविकादि' पदका स्थानापन्न है। अतः दोनों वाक्योंके द्वारा शीलाङ्कने आजीविक आदि गोशालक मतानुसारियों
और दिगम्बरोंको एक नहीं माना है। और यदि माना है तो शीलाङ्कका उक्त लेख भी भ्रान्त है और उससे कोई भी बुद्धिमान' सहमत नहीं हो सकता; क्योंकि आजीविकों और दिगम्बरोंमें मौलिक सैद्धान्तिक भेद है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
शीलांकने जिस गाथा' १२ की टीकाके प्रारम्भमें 'श्राजीवकादीनां परतीथिकानो' आदि लिखा है, उस गाथामें जैनमुनि आजो. विक आदि परतीथिकोसे कहता है कि तुम लोग कांसा आदिके पात्रोंमें भोजन करते हो, रोगी साधुके लिये गृहस्थांके द्वारा आहार मंगाते हो । इस प्रकार तुम लोग बोज और कच्चे जलका उपभोग करते हो और उद्दिष्ट भोजन करते हो।
१-'भारतीय विद्या' जि० ३ पृ० ३६ में गोपाणिका 'श्राजीविक सेक्ट' शीर्षक लेख ।
२ 'तुम्भे भुजह पाए सु, गिलाणो अभिहडंमि वा । तं च बीअोदगं मोच्चा, तमुद्दिसादि जं कडं ॥१२॥
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