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________________ ४ श्रृतावतार भगवान महावीरके उपदेशोंको सुनकर उनके गणधरोंने जो ग्रन्थ रचे हैं उन्हें श्रुत' कहते हैं। 'श्रुत' का अर्थ है-'सुना हुआ'। अर्थात् जो गुरु मुखसे सुना गया हो वह श्रुत है। भगवान महावीरके उपदेशोंको उनके मुखसे उनके गणधरोंने श्रवण किया और उनके गणधरोंसे उनके शिष्योंने और उन शिष्योंसे उनके प्रशिष्योंने श्रवण किया। इस तरह श्रवण द्वारा प्रवर्तित होनेके कारण ही उसे श्रुत कहा जाता है। श्रुतकी यह परम्परा बहुत समय तक इसी तरह श्रुति द्वारा प्रवर्तित होती रही । सम्पूर्ण श्रुतके अन्तिम उत्तराधिकारी श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । उनके समयमें बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और संघभेदका सूत्रपात हा गया। आगम संकलना श्वेताम्बरीय मान्यताके अनुसार दुर्भिक्षका अवसान होने पर पाटलीपुत्रमें एक साधु सम्मेलन हुआ और उसमें जिन जिन श्रुतधरोंको जो जो श्रुत स्मृत था उसका संकलन किया गया । इसे पाटलीपुत्री वाचना कहते हैं। १-'निरावरण ज्ञानाः केवालिनः । तदुपदिष्टं बुद्धयतिशयर्द्धियुक्तगणधरानुस्मृतं ग्रन्थरचनं श्रुतं भवति ।'-सर्वार्थ०, अ० ६, सूत्र १३ । 'गुरुसमीपे श्रूयते इति श्रुतम्'-अनु० । २-पाटलीपुत्री वाचनाका वर्णन तित्थोगाली पइन्नामें, हेमचन्द्रकृत परिशिष्ट पर्व के नौवें सर्गमें तथा स्थूलभद्रको कथाओंमें मिलता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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