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________________ ६५० जै० सा० इ० पू०-पीठिका उपलब्ध प्रतियों में नहीं पाये जाते । अत: टीकाकार अभयदेव' ने लिखा है कि यह अध्ययन विभाग वाचनान्तर की अपेक्षा से है. उपलब्ध वाचना की अपेक्षा से नहीं हैं। समवायांग में भा आठवें और नौवें अग में दस दस अध्ययन बतलाये हैं। अतः समवायांग के रचयिता के सामने भी उपलब्ध प्रतियों से भिन्न प्रतियां थीं। छठे दशा का नाम 'पण्ह वागरण दसाओ' है। यह निश्चय है कि यह दसवें अंग का नाम है। किन्तु दसवें अंग में दस अध्ययन नहीं हैं, दस द्वार हैं। दस अध्ययनों के जो नाम स्थानांग में दिये हैं उनसे प्रकट होता है कि स्थानांग के रचयिता के सामने दसवें अग की प्रति उपलब्ध अंग से बिल्कुल भिन्न थी । स्थानांग में पह२ वागरण दसाओं के दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार दिये हैं-उवमा, संखा, इतिभासियाई, आयरिय भासियाई. महावीर भासियाई, खोमग पसिणाई, कोमलपसिणाई अदागपसिणाई, अगुट्ठपसिणाई, बाहु पसिणाई। किन्तु उपलब्ध प्रश्न व्याकरण अंग के दस द्वारों के नाम इस प्रकार हैं-हिंसा, मुसावाय, तेणिय, मेहुण, परिग्गह, अहिंसा, सञ्च, अतेणिय, वंभचेर और अपरिग्गह। दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। समायांग ( सू. १४५) और नन्दी ( सू. ५५ ) में भी प्रश्न व्याकरणमें खोमग. अदाग., अंगुठ्ठ. और बाहु. नामके अध्ययन बतलाये हैं। अतः नन्दी और समवायांग सूत्रके रचयिताके सामने भी प्रश्न व्याकरण सूत्रकी वही प्रति होनी चाहिये जो तीसरे अंगके रचयिताके सामने थी। १-'तदेवमिहापि वाचनान्तरापेक्षयाऽध्ययनविभागो उक्तो न पुनरूपलभ्यमानवाचनापक्षेयेति', स्था०, टी०, पू० ४८३ पृ० । २-'प्रभ व्याकरणदशा इहोक्तरूपा न दृश्यन्ते दृश्यमानास्तु पञ्चास्रव पञ्च संवरात्मिका इति'—स्था० टी०, पृ० ४८५ पू० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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