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________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका भगवान महावीर के पास जाकर उनसे नरक-स्वर्ग में उत्पत्तिको लेकर अनेक प्रश्न करता है और उनके उत्तरोंसे सन्तुष्ट होकर यह मान लेता है कि महावीर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। तथा उनसे फिरसे प्रव्रज्या लेता है । ४०४ कालासवेसिय पुत्त तथा गांगेयके इस विवरण से कई तथ्य प्रकट होते हैं । प्रथम, पार्श्वनाथ के अनुयायी अनगारोंको यदि वे महावीरके अनुयायी बनना चाहते थे, तो पुनः दीक्षा लेनी पड़ती थी । पार्श्वनाथके धर्म में दीक्षित होनेसे ही उन्हें भगवान महावीर नहीं अपना लेते थे। दूसरे, पार्श्वनाथ के अनुयायी अनगारोंको धर्मकी परम्पराका ज्ञान नहीं रहा था, सामायिक आदिका स्वरूप और यथार्थ प्रयोजन अज्ञात और अश्रुत हो चले थे, उन्हें जानने और सुनने के साधन क्षीण हो गये थे । सम्भवतः इसी से 'पासत्थ' शब्द जो यथार्थ में पार्श्व स्वामी में स्थित अर्थात् पार्श्वस्वामीके अनुयायीका वाचक था, शिथिलाचारी और अज्ञानी साधुके लिये व्यवहृत होने लगा था । किन्तु उस समय ऐसे भी पार्श्वापत्यीय संघ थे जो स्वतन्त्र विहार करते थे और भगवान महावीरके संघ में सम्मिलित नहीं हुए थे । इसके उदाहरण के रूपमें एक तो केशीको ही उपस्थित किया जा सकता है, जो श्रावस्तीके उद्यानमें संघ सहित ठहरा भिजाणइ सव्वन्नु सव्वदरिसी, तए ांसे गंगेये अणगारे समणं भगकं महाबीरं तिक्खुत्तो श्रायाणिण पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदेद्द, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! तुज्झं अंतियं चाउज्जामानो धम्माल पंच महव्वइयं । एवं जहा कालासवेसिय पुत्तो तहेव भाणि - यव्वं जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । सेवं भंते सेवं भचे ! ( सूत्र ३७६ ) । । Jain Educationa International --- - भ० सू०, ६ शत०, ५ उ० For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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