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________________ ५४६ जै० सा० ई० पू० पीठिका है कि जिससे अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान हो उसे श्रागम कहते हैं । यद्यपि नवम आदि पूर्व भी श्रुत हैं किन्तु केवल ज्ञानकी तरह अतीन्द्रिय पदार्थों का विशिष्ट ज्ञान कराने में कारण होने से उन्हें आगम ही कहते हैं । प्रथम आचारांग से लेकर अष्टम पूर्व पर्यन्त शेष श्रुतके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थोंका वैसा ज्ञान नहीं होता। इसलिये उसे केवल श्रुत कहते हैं। इस तरह श्रुतसे आगमका विशेष महत्व बतलाया' है । यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि समस्त आगमिक साहित्यको श्रुत' भी कहते हैं । 'श्रुत" का अर्थ होता है 'सुना हुआ' अर्थात् तीर्थङ्करोंसे सुनकर गणधर आगमों की रचना करते हैं । अतः मूलतः 'श्रुत' होने के कारण वह 'श्रुत' कहलाया । इसके विषय में पहले विशेष प्रकाश डाला गया है। ३ ऊपर कहा गया है परम्परासे आनेके कारण आगम कहते हैं । तो प्रश्न होता है परम्परासे श्रागत वस्तु शब्दरूप है अथवा १ 'गम्पन्ते अतीन्द्रियाः पदार्था येन स श्रागम इति व्युत्पत्तेः, नवम पूर्वादीनां श्रुतत्वाविशेषे केवलज्ञानादिवदतीन्द्रियार्थेषु विशिष्ट - ज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेनैव व्यपदेश: । शेषश्रुतस्य तु नातीन्द्रियार्थेषु तथाविधोऽवबोधस्ततो ऽस्मिन् श्रुतव्यवहारः ।" - अभि० रा० श्रागम' शब्द | 1 " २ ' तदावरणक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयतेऽनेनेति तत् शृणोति, श्रवणमात्रं वा श्रुतम् । - सर्वार्थ० अ० १-६ सू० । 'श्रुतशब्दोंऽयं श्रवणमुपादाय व्युलादितोऽपि कस्मिंश्चिद् ज्ञानविशेषे वर्तते । - सर्वा०, १२० । ३' केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य | १३ | – तत्वार्थ०, ०६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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