SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 724
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतपरिचय ६६६ सकते । भगवान महावीरके ६८० वर्ष पश्चात् पुस्तक वाचनाका उल्लेख होनेसे भी उसका समर्थन होता है । अतः श्री वेबर' का विश्वास था कि कल्पसूत्रका मुख्य भाग देवद्धि गणिके द्वारा रचा गया है। उनका यह भी कहना था कि यथार्थ में कल्पसूत्र अथवा उसका वर्तमान आभ्यन्तर भाग 'कल्पसूत्र' कहे जानेका दावा नहीं रखता; क्योंकि उसकी विषय सूचीके साथ उसका कोई मेल नहीं खाता । 'दसाओं' के आठवें अध्ययन पर्युषणा कल्पके साथ उसका मेल होनेके बाद उसे वह नाम दिया गया है। कल्पसूत्रपर सबसे प्राचीन टीका जिन प्रभ सूरिकी है जिसका नाम सन्देह विषौषधि' है। १३००ई० में उसको रचना हुई है । उसीके प्रारम्भ में उसे कल्पसूत्र नाम दिया हुआ है। कल्पसूत्रका अन्तिम भाग पर्युषणा है। डा० विन्टर नीट्स ने इसे कल्पसूत्रका प्राचीनतम भाग होनेकी संभावना व्यक्त की है। अपने इस अनुमानकी पुष्टि में उनका कहना है कि कल्पसूत्रका पूरा नाम वास्तव में पर्युषणा कल्प है। और यह नाम इस अन्तिम भागके लिये ही उपयुक्त हो सकता है। आज भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रतिवर्ष पर्युषण पर्व में इसका पाठ होता है। उनका यह भी कहना है कि परम्पराके अनुसार जिन चरित्र, स्थविरावली और सामाचारी कल्पसूत्रके नामसे मूल आगमों में सम्मिलित नहीं थे। देवद्धि गणि ने उन्हें आगमों में सम्मिलित किया, यह परम्परा कथन बहुत करके ठीक प्रतीत होता है। १-इं० एं० जि० २१, पृ० २१२-२१३ । २-हि० इं० लि०, जि० २, पृ० ४६३-४६४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy