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________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका यज्ञ तो जमुनाके तट पर किये थे और ५५ यज्ञ गंगाके तट पर किये थे। यह उल्लेख उक्त कथनका समर्थक है। सिन्धु देशसे आर्य सभ्यताका प्रसार किधरको हुआ इसका निर्देश शतपथ ब्राह्मणमें मिलता है। लिखा है-सरस्वतीके तटसे अग्निहोत्रने गंगाके उत्तर तट पर गमन किया, और फिर सरयु, गण्डक तथा कोसी नदीको पार करके सदानीरा ( राप्ती ) नदीके पश्चिमी तट पर पहुँचा। उसमें अग्निहोत्रके मगध अथवा दक्षिण विहार तथा बंगालमें प्रवेश करनेका उल्लेख नहीं है। ये उल्लेख बतलाते हैं कि पंजाब तथा उत्तर प्रदेशके भागोंके सिवाय भारतके अन्य भागोंमें वैदिक आर्य अपनी वस्तियाँ नहीं वसा सके थे, (प्री० हि० इं० पृष्ठ २१ ) । एतरेय आरण्यक, ( २, १-१-५ ) में वंग, वगध और चेरपादोंको वैदिक धर्मका विरोधी बतलाया है। इनमेंसे वंग तो निस्सन्देह बंगालके अधिवासी हैं, वगध अशुद्ध प्रतीत होता है, सम्भवतया 'मगध' होना चाहिये । 'चेरपाद' विहार और मध्यप्रदेशके चेर लोग जान पड़ते हैं। डा. भण्डारकरने (भा०, इं०, पत्रिका, जि० १२, पृष्ठ १०५) लिखा है कि 'ब्राह्मण काल तक अर्थात् ईस्वी पूर्व ६०० के लगभग तक पूर्वीय भारतके चार समूह मगध, पुड, वंग और चेरपाद आर्य सीमाके अन्तर्गत नहीं आये थे ।' 'इस प्रकार असुर लोग उस समय विहारसे आसाम तक वसे हुए थे। उनकी अपनी सभ्यता और संस्कृति थी। उन्होंने सुदीर्घ काल तक ब्राह्मण धर्मके आक्रमणका सामना अवश्य ही बड़ी दृढ़तासे किया। अन्तमें ब्राह्मण धर्मने असुरोंकी सभ्यताके ऊपर ही अपनी सभ्यताका बीजारोपण किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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