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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
१७३ स्कन्द पुराणके प्रभास खण्डमें कुछ श्लोक इस प्रकार हैं
भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम् । तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः ॥ पद्मासनः समासीनः श्याममूर्तिदिगम्बरः । नेमिनाथः शिवोऽथैवं नाम चक्रेऽस्य वामनः ॥ कलिकाले महाघोरे, सर्वपापप्रणाशकः ।
दर्शनात् स्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रदः ॥ अर्थात् - अपने जन्मके पिछले भागमें वामनने तप किया। उस तपके प्रभावसे शिवने वामनको दर्शन दिये । वे शिव श्यामवर्ण, नग्न दिगम्बर और पद्मासनसे स्थित थे । वामनने उनका नाम नेमिनाथ रक्खा। यह नेमिनाथ इस घोर कलिकालमें सब पापोंका नाश करनेवाला है। उनके दर्शन और स्पर्शनसे करोड़ों यज्ञोंका फल होता है।
जैन नेमिनाथको कृष्णवर्ण मानते हैं और उनकी मूर्ति भी अन्य जैन मूर्तियोंके अनुसार दिगम्बर और पद्मासन रूपमें स्थित होती है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि नेमिनाथकी श्यामवर्ण पद्मासनरूप जैन मूर्तिको शिवकी संज्ञा दे दी गई है। क्योंकि शिवका यह रूप नहीं है। इसीसे कलिकाल में उसे सर्व पापांका नाशक माना है।
विद्वानोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि कलिकालके बहानेसे ब्राह्मणोंको अनेक पुरानी वैदिक रीतियोंको त्यागना पड़ा है और अनेक नये तत्त्वोंको स्वीकार करना पड़ा है। जान पड़ता है नेमिनाथकी मूर्तिकी शिवके रूपमें उपासना भी उसीका फल है।
आज भी बद्रीनाथमें जैन मूर्ति बद्री विशालके रूपमें पूजी जाती है। ब्राह्मण धर्मकी यही तो विशेषता है। वह अन्य धर्मके
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