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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका तत्त्वोंको अपनेमें इस ढंगसे पचाता आया है कि कालान्तरमें वे तत्त्व उसके ऐसे अभिन्न अंग बन गये कि मानों वे उसीके मूल तत्त्व हैं और जिस धर्मके वे मूल तत्त्व थे, उस धर्मने उन तत्त्वोंको ब्राह्मण धर्मसे लिया है। वैदिक कालसे लेकर पौराणिक काल तकके साहित्यका बारीकीसे अन्वेक्षण करनेसे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। उदाहरणके लिये उपनिषदोंके तत्त्वज्ञानको ही ले लें। वह वैदिक आर्योंकी देन नहीं हैं। किन्तु उसे उन्होंने इस तरहसे अपनाया मानो वह वेदका ही एक अंग है। इसी तरह उपनिषदोंके पश्चात् महाभारत और पुराणोंका संवद्धन करके उन्हें इस रूपमें ग्रथित किया कि जिस समय जिसको प्रभावशाली पाया उसको अपना ही अंग बना लिया और इस तरह उस ओर आकृष्ट होनेवाली जनताको उधर जानेसे रोक लिया। इतना ही नहीं, यदि अपने साहित्यमें दूसरे धर्मोके अनुकूल कोई बात दिखाई दी तो उसका सम्मान कर दिया । यथा-जिनेश्वरको जनेश्वर और जिनको जन कर दिया। या उस अंशको प्रक्षिप्त करार देकर नये संस्करणमेंसे निकाल दिया, इत्यादि।
ऐसी परिस्थिति में वास्तविक प्राचीन स्थितिका दिग्दर्शन करा सकना शक्य नहीं है । फिर भी उपलब्ध वैदिक साहित्यके सिवाय जब कोई छान्य अवलम्बन न हो तो उसीको आधार बनाकर चलना ही पड़ता है। क्योंकि उपलब्ध जैन साहित्य वैदिक साहित्य जितना प्राचीन नहीं है यह स्पष्ट है । और बौद्ध साहित्य जैन साहित्यका समकालीन ही है। अतः गत्यन्तरका अभाव होनेसे वैदिक साहित्यको ही लेकर खोज बीन करना पड़ता है और उस खोज बीनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन धर्म जिन मूल तत्त्वोंको अपनाये हुए है, वे मूल तत्त्व ऋग्वेदसे
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