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संघ भेद था, जिनमें पार्श्वनाथकी परम्पराके केशी प्राचार्य भी थे। किन्तु कुछ पार्थापत्यीय ऐसे अवश्य थे, जो महावीरके संघमें सम्मिलित नहीं हुए थे। फिर भी उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीरके धर्ममें कोई अन्तर पाड़कर ऐसा सम्प्रदाय भेद नहीं उत्पन्न किया जो केवल पार्श्वनाथको या केवल महावीरको ही अपना धर्मगुरु मानता हो, और दूसरे तीर्थङ्करको अपना धर्मगुरु न मानता हो। इसका कारण भगवान महावीर जैसे समर्थ धर्मगुरु का व्यक्तित्व था, जिन्होंने युवावस्थासे ही कठोर संयमी जीवन विताकर 'निग्रन्थ' नामको सार्थक बनाया था और सुखशील निम्रन्थोंको भी सच्चा निर्ग्रन्थ बननेकी भावनाको जागृत किया था। भगवान महावीरके ही अनुपम आर्दश तथा प्रभावके कारण उनके निर्वाणके पश्चात् भी किसी तरहका मत भेद उत्पन्न नहीं हो सका
और गौतम गणधर, सुधर्मा स्वामी तथा जम्बू स्वामी तक भगवान महावीरका जैनसंघ अखण्ड रूपसे प्रवर्तित हुआ । जम्बू स्वामीके पश्चात् किसी प्रकारके अलगावका भाव उत्पन्न हुआ हो तो असं. भव नहीं है; क्योंकि भगवान महावीरके इन तीनों उत्तराधिकारियों को दोनों सम्प्रदाय अपना धर्मगुरु मानते हैं। यद्यपि इतना अन्तर अवश्य प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा गौतम गणधरको ही विशेष महत्त्व देती है, जब कि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्माको विशेष महत्त्व देती है । सुधर्माके शिष्य जम्बू स्वामी थे। जम्बू स्वामीके 'पश्चात् कोई अनुबद्ध केवलज्ञानी नहीं हुआ। और इस तरह केवल ज्ञानियोंकी परम्पराका अन्त होगया।
जम्बू स्वामीके पश्चात्से ही दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा की गुर्वावलिमें अन्तर पड़ता है और उनमें एक श्रुतके ली भद्रबाहु ही ऐसे व्याक्त हैं, जिन्हें दोनों मान्य करते हैं। इसपरसे ऐसा
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