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संघ भेद
४०१ सूत्रकृतांग में पार्श्वस्थोंको अनार्य, बाल और जिनशासनसे विमुख रतलाते हुए स्त्री प्रासक्त भी बतलाया है, और लिखा है कि वे ऐसा कहते हैं कि जैसे फुन्सी फोड़ेको मुहूर्त भर दबा देने से उसका मवाद निकलकर शान्ति मिल जाती है वैसे ही समागमकी प्रार्थना करने वाली स्त्रीके साथ समागम करनेसे शान्ति मिलती है इसमें दोष क्या ? पहले हम लिख आये हैं कि पार्श्वनाथके धर्ममें चार यम थे-अहिंसा, सत्य, दत्तादान और अपरिग्रह । ब्रह्मचर्य अपरिग्रहमें ही गर्भित था, क्योंकि स्त्रीका ग्रहण किये बिना अब्रह्मसेवन नहीं किया जा सकता। किन्तु भगवान् महावीरने चतुर्यामके स्थानमें पञ्चमहाव्रत स्थापन किये और अपरिग्रहोंमें गर्भित ब्रह्मचर्यको स्पष्ट रूपसे निर्दिष्ट करनेके लिये एक पृथक् व्रतका स्थान दिया।
इस परिवर्तनके प्रकाशमें पार्श्वस्थोंके विषयमें सूत्रकृतांगके उक्त कथनका निरीक्षण करनेसे यह प्रकट होता है कि चार यमोंमें ब्रह्मचर्यका निर्देश न होनेसे पार्श्वस्थ मुनियोंमें दुराचारकी प्रवृत्ति भी चल पड़ी थी, और सम्भवतः इसीसे भगवान महावीरको ब्रह्मचर्यका पृथक् निर्देश करना पड़ा था। १ 'एवमेगे उ पासत्था पन्नवंति अणारिया ।
इत्थीवसं गया बाला जिणसासणपरम्मुहा ।।६।। टी-'सदनुष्ठानात् पार्श्वे तिष्ठन्तीति पार्श्व स्थाः, . स्वयूथ्या वा पाच स्थावसन्नकुशीलादयः स्त्रीपरीषहजिताः।'
-सूत्रकृता० ३ ०,४ उ० । 'जहा गंडं पिलागं वा परिपीलेज मुहुत्तगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ को सिया ॥१०॥
-सूत्र०, २१०४ उ० ।
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