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जै० सा इ० पू०-पोठिका कुन्दकुन्दके ' भाव प्राभृतमें एक गाथाके द्वारा उक्त तीन सौ त्रेसठ मतोंका निर्देश किया गया है। तथा गोमट्टसार २ कर्मकाण्डमें और श्वे० 3 प्रवचन सारोद्धारमें इन दृष्टियोंकी प्रक्रिया भी बतलाई हैं। किन्तु अकलंक देवने उक्त मूल चार दृष्टियों के कतिपय अनुयायिओंके नाम भी दिये हैं। और वे ही नाम सिद्धसेन गणीकी तत्वार्थ टीका तथा धवलाटीकामें भी हैं।
तीन सौ त्रेसठ मत जैन साहित्यमें तीन सौ त्रेसमतोंका उपपादन जिस रीतिसे किया गया है, वह रीति यहाँ दी जाती है
क्रिया ४ कर्ताके बिना नहीं होती और वह आत्माके साथ समवेत है ऐसा कहने वाले क्रियावादी हैं। अथवा जो कहते हैं कि क्रिया प्रधान है, ज्ञान नहीं, वे क्रियावादी हैं। अथवा 'जीवादि पदार्थ हैं, इत्यादि कहने वाले क्रियावादी हैं। इन क्रियावादियोंके १८० भेद इस प्रकार होते हैं । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नौ पदार्थ हैं।
१ 'असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होई चुलसीदी । सत्तही अण्णाणी वेणेयो होति बत्तीसा ।।१३५।।"-भा.प्रा. । गो.क. गा.८७६ । -सूत्र. नि., गा.११६ । 'अज्ञानिकादीनां त्रयाणां त्रिषष्ठिनां कुवादिशतानां' ।-त. भा० टी०८-१सू. ।
२ गो. क. गा.। ३-प्र. सारो०. गा० ११८८ श्रादि ।
४-'क्रिया का बिना न संभवति, साचात्मसमवायिनीति वदन्ति तच्छीलाश्च ये ते क्रियावादिनः। अन्ये त्वाहु :-क्रियावादिनो ये ब्रुवते क्रिया प्रधांनं किं ज्ञानेन ? अन्ये तु व्याख्यान्ति-क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः।भ० सू. टी. ३०-१।
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