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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
'अर्धमागधी' शब्द 'अर्ध' और 'मागधी' इन दो शब्दोंके समास से निष्पन्न होता है । अर्धशब्दका अर्थ लगभग आधा और ठीक आधा दोनों होते हैं । व्याकरणके अनुसार जिस समासमें अर्ध शब्द अवयवीसे पूर्व में आता है वहाँ उसका अर्थठीक आधा होता है। अतः 'मागण्या अर्धम- अर्धमागधी' इस व्युत्पत्ति के अनुसार- जिस भाषा में ठीक आधी मागधी भाषा और आधी अन्य अन्य भाषाएँ रिलीमिली हों उसे अर्धमागधी भाषा कहते हैं । उदाहरण के लिए जिस भाषा में सौ शब्दोंमेंसे पचास शब्द मागधी भाषाके और पचास शब्द अन्य अन्य भाषाओं के मिलेजुले हों उसे अर्धमागधी कहा जा सकता है। श्रुतसागर सूरिने इसी व्युत्पत्तिको लक्ष्य में रखकर ही उक्त अर्थ किया है ।
साकी सातवीं शताब्दीके चूर्णिकार श्री जिनदास महत्तरने अर्धमागथी भाषाका अर्थ दो प्रकारसे किया है । यथा
'मगहद्धविसयभासा निबद्धं श्रद्धमागहं, श्रहवा अट्ठारसदेसी भासा - यितं श्रद्धमागधं ।'
इनमें से दूसरे प्रकारका अर्थ तो स्पष्ट है - अट्ठारह प्रकारकी देशी भाषाओं में नियत सूत्रको श्रद्धमागध कहते हैं । अर्थात् अर्धमागधी भाषा अट्ठारह प्रकारकी देशी भाषाओंके मेलसे निष्पन्न भाषा होती है। किन्तु प्रथम प्रकार में मतभेद है
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पं० बेचरदासजीने उसका अर्थ इस प्रकार किया है- 'मगधदेशकी आधी भाषा में जो निबद्ध हो उसे अर्धमागध कहते हैं ।' ( जै० सा० सं०, भा० १, पृ० ३३ ) । किन्तु अपने 'पाइ सहमहणवके योद्धा में पं० हरगोविन्ददासने उसका अर्थ किया है'मगधदेशके अर्धप्रदेशकी भाषामें जो निबद्ध हो वह अर्धमागध ( पृ० २७ ) ।
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