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भगवान् महावीर पं० हरगोविन्ददास अर्धमागधी शब्दकी 'अर्धमागध्याः' व्युत्पत्तिसे सहमत नहीं हैं। वह 'अर्धमगधस्येयं अर्धमागधी' व्युत्पत्तिको ही वास्तविक बतलाते हैं। इसके अनुसार अर्धमागधीका अर्थ होता है -मगध देशके अर्धाशकी जो भाषा वह अर्धमागधी है । निशीथ चूर्णिकारके अर्थका प्रथम प्रकार इसी व्युत्पत्तिके अनुकूल प्रतीत होता है । मगधार्धविषय भाषानिबद्धा' का अर्थ मगधदेशके अर्धप्रदेशकी भाषामें निबद्ध ही उपयुक्त हैमगधदेशकी आधी भाषामें निबद्ध ठीक नहीं है, क्योंकि अर्द्ध शब्द ऐसी स्थितिमें नहीं है जिससे उसे भाषाके साथ संयुक्त किया जा सके।
किन्तु पं० हरगोविन्ददासने चूर्णिकारके दूसरे अर्थको बिल्कुल ही छोड़ दिया है क्योंकि वह उनकी 'अर्धमगधस्येयं' व्युत्पत्तिके प्रतिकूल और 'अर्धमागध्याः ' के अनुकूल है। उससे तो यही स्पष्ट होता है कि अर्धमागधी भाषा अनेक भाषाओंके मेलसे निष्पन्न भाषा थी। यही अर्थ तत्कालीन स्थिति तथा जैनपरम्परा के भी अनुकूल है। महावीर भगवानकी जन्मभूमि मगधदेश होनेसे उनकी भाषाका मुख्य सम्बन्ध मगधदेशके साथ होना उचित ही है। उसके साथ ही मगधके निकटवर्ती दूसरे प्रान्तोंकी भाषाओंके साथ मागधीका सम्पर्क होना स्वाभाविक है। अतः अन्य प्रान्तोंको भाषाओंसे मिश्रित मागधी भाषा ही अर्धमागधी होनी चाहिये।
मार्कण्डेयने अपने प्राकृत व्याकरणमें मागधी भाषाका लक्षण बनाकर उसी प्रकरणके अन्तमें अर्थ मागधी भाषाका लक्षण इस प्रकार कहा है-'शौरसेन्या अदूरत्वादियमेवार्धमागधी ।' अर्थात् शौरसेनी भाषाके निकटवर्ती होनेसे मागधी ही अर्धमागधी है।' अर्धमागधीका उत्पत्ति स्थान मगध और शूरसेन
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