________________
१३
जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हैं कि बड़ी कठिनाई के साथ कट्टर ब्राह्मणोंको कृष्ण वासुदेवको स्वयं परमेश्वर नारायण माननेके लिए तैयार किया जा सका। गीता में ( ७-१६,९-११) कृष्ण खेदके साथ कहते हैं कि ऐसा मनुष्य मिलना बड़ा कठिन है जो कहे-वासुदेव सब कुछ है। जब मैं मानवरूपमें था मूर्ख मेरा तिरस्कार करते थे। सभापर्व (म० भा० ) में हमें उसे कालकी स्मृतियां दृष्टि गोचर होती हैं जब कृष्णके परमेश्वर होनेके दावेका खुले रूपसे खण्डन किया जाता था क्योंकि कृष्ण ब्राह्मण नहीं थे। म० मा० ( १-१६७-३३ ) में वासुदेव केवल नारायणके उत्तराधिकारी हैं । दूसरी जगह ( १-२२८-२० ) उन्हें नारायण बतलाया है। किन्तु यह नारायण एक ऋषि है, परमात्मा नहीं है। किन्तु महाभारतके पूर्ण होनेपर कृष्णको नारायण विष्णु सबने मानलिया ।' ( अर्ली हि, वैष्ण, १०७-१०८ )
डा. राय चौधरी ने एक प्रश्न उठाया है कि ईसा पूर्व शताब्दियोंमें ब्राह्मणोंके द्वारा जो नारायण विष्णुके साथ वासुदेवका एकीकरण किया गया उसे क्या भागवतोंने स्वीकार किया या जैसे बौद्धोंने बुद्धको विष्णुका अवतार माने जाने पर भी उसे स्वीकार नहीं किया वैसे ही भागवतोंने भी उसे स्वीकार नहीं किया। इस प्रश्नके समाधानके रूपमें उन्होंने लिखा है कि ईसापूर्व दूसरी शतीके भागवत शिलालेखमें नारायण विष्णुका नाम न पाया जाना उल्लेखनीय है। जिन्होंने अपने भक्तोंके द्वारा आतिथ्य पाया वह वासुदेव और संकर्षण थे, विष्णु नारायण नहीं। अतः ईसा पूर्व दूसरी शतीके उस शिलालेखसे नारायणपूजा और वासुदेव-संकर्षणकी संस्कृतिके बीचमें कोई सम्बन्ध प्रमाणित नहीं होता। गीतामें, जिसे वैष्णव धर्मकी प्राचीनतम पुस्तक माना जाता है, वासुदेव कहते हैं 'मैं आदित्योंमें विष्णु
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org