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________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कृष्ण बलदेव । फिर कलियुगके आरम्भमें जिनसुत बुद्ध होंगे, फिर कलियुगके अन्तमें कल्कि होंगे। इस प्रकार अवतारोंकी सबसे अधिक संख्या भागवत पुराणमें है। इसमें उक्त प्रसिद्ध दस अवतारोंमेंसे वराह अवतारका दूसरा, मत्स्यावतारका दसवाँ, कच्छपका ग्यारहवाँ, नृसिंहका चौदहवां, वामनका १५ वां, परशुरामका १६ वां, रामका १८ वां और कृष्णका १६ वां तथा बुद्ध और कल्किका २१ वां और बाईसवां नम्बर हैं। इन बाईस अवतारोंमें दो-तीन अवतार ऐसे भी हैं, जो वेद विरोधी धर्मके प्रवर्तक माने जाते हैं। उनमें सबसे पहला और क्रमानुसार पाँचवां अवतार कपिलका है जिसने सांख्यशास्त्रका उपदेश दिया। और पाठवां ऋषभदेवका है, जिन्हें जैन धर्ममें आद्यतीर्थङ्कर माना गया है तथा २१ वां अवतार बुद्धका है, जिन्होंने बौद्धधर्मकी स्थापना की। किन्तु कृष्णको छोड़करक्योंकि वह तो स्वयं विष्णु थे, प्रायः अन्य सब अवतारोंमें ऋषभावतारके प्रति विशिष्ट अादर प्रदर्शित किया गया है और उन्हें योगी बतलाया है। किन्तु विष्णुका अवतार बतलाते हुए उन्हें यज्ञ और ब्राह्मणोंकी कृपाका ही फल बतलाया है। ऋषभावतारका वर्णन करते हुए लिखा है भागवतमें ऋषभ चरित शुकदेवजी कहते हैं-हे राजन् ! अग्नीध्रके पुत्र नाभिने सन्तानकी कामनासे मेरुदेवी नाम अपनी पुत्रहीन रानी सहित एकाग्र चित्तसे यज्ञके अनुष्ठान द्वारा भगवान यज्ञ पुरुषकी आराधना की । यद्यपि भगवान् विष्णुको कोई सहजमें रहीं पा सकता। किन्तु भगवान् तो भक्तवत्सल हैं। अत एव जब नाभिके यज्ञमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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